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________________ ४४ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । जिनेश्वरीय ग्रन्थोंके विषयमें कुछ विशेष विवेचन । ___ उपर हमने इनके बनाये हुए जिन ग्रन्थोंका नामोल्लेख किया है उनका कुछ विवरणात्मक परिचय यहां पर देना चाहते हैं, जिससे पाठकोंको, उन प्रयोक्त विषयोंका कुछ परिचय मिल जाय । (१) हारिभद्रीय अष्टकप्रकरणवृत्ति । जिनेश्वर सूरिके बनाये हुए इन ग्रन्थों में निर्दिष्ट समयवाला जो पहला ग्रन्थ मिलता है वह हरिभद्रसूरिकृत 'अष्टकप्रकरण' नामक ग्रन्थकी वृत्तिरूप है । सुप्रसिद्ध महान् जैन शास्त्रकार हरिभद्रसूरि, कि जिन्होंने प्राकृत एवं संकृत भाषामें भिन्न भिन्न विषयके छोटे-बडे सेंकडों ही ग्रन्थोंकी रचना की है उनमें उनका एक ग्रन्थ 'अष्टक प्रकरण' नामक है । ८-८ श्लोकोंका एक छोटा स्वतंत्र प्रकरण ऐसे ३२ प्रकरणोंका संग्रहात्मक यह संस्कृत ग्रन्थ है । इन अष्टकोंमें हरिभद्रसूरिने जैनदर्शनाभिमत कुछ तात्त्विक, कुछ सैद्धान्तिक और कुछ आचार-विचार विषयक प्रकीणे विचारोंका, संक्षेपमें परंतु बहुत ही प्रौढ भाषामें, ऊहापोह किया है । यथा- पहला अष्टक 'महादेव' विषयक है जिसमें 'महादेव' किसे कहना चाहिये और उसके क्या लक्षण होने चाहिये इसका विचार किया गया है। दूसरा अष्टक 'स्नान' विषयक है, जिसमें शुद्ध स्नान किसका नाम है और उसका क्या फल होना चाहिये, इसका विवेचन है । तीसरा अष्टक 'पूजा' विषयक है, जिसमें उपास्य देवकी शुद्ध पूजा किस वस्तुसे की जानी चाहिये और वह क्यों करनी चाहिये इसका विधान है । चौथा अष्टक 'अग्निकारिका' पर है । ब्राह्मणसंप्रदायमें जो 'अग्निकर्म' अर्थात् होम-हवन का विधान है उसका वास्तविक मर्म क्या है और कौनसा होम विशुद्ध होम हो सकता है इसका इसमें खरूप निरूपण है । इसी तरह किसी अष्टकमें 'भिक्षा' विषयका, किसीमें 'भोजन' विषयका, किसीमें 'ज्ञान'का, किसीमें 'वैराग्य'का, किसीमें 'तप'का, किसीमें 'हिंसानिषेध'का, किसीमें 'मांस भक्षण-परिहार'का, किसीमें 'मद्यपानदूषण'का, किसीमें 'मैथुन परित्याग'का, किसीमें 'धर्माधर्म'का और किसीमें 'मोक्षस्वरूप'का वर्णन किया गया है । मालूम देता है उस समय धार्मिक जगत्में भारतके ब्राह्मण, बौद्ध और आर्हत संप्रदायोंमें जिन कितनेक आचार-विचार-विषयक एवं तात्त्विक-सिद्धान्तविषयक मन्तव्योंका परस्पर सदैव ऊहापोह होता रहता था और जिन विचारोंके साथ गृहस्थ एवं त्यागी दोनों वर्गोंका जीवन-व्यवहार संबद्ध रहता था, उनमेंसे. कितनेक विशेष व्यापक और विशेष विचारणीय प्रश्नोंकी मीमांसाको लेकर हरिभद्र सूरिने, इस प्रकरण ग्रन्थकी, सरल और सुबोध शैलीमेंपरंतु बहुत ही तटस्थ और युक्तिसंगत भाषामें- बडी सुन्दर रचना की है। जिनेश्वर सूरिके सन्मुख मी ये प्रश्न सदैव उपस्थित होते रहते होंगे; क्यों कि उनका कर्मक्षेत्र भी उसी प्रकारके धार्मिक जगत्के अन्तर्गत था । उनको भी सदैव अपने प्रवासमें और प्रवचनमें इस प्रकारके विषयोंका नित्य ऊहापोह और शंका-समाधान करना पडता रहा होगा । इस दृष्टिसे हरिभद्र सूरिके इन अष्टकोंका अध्ययन और मनन उनको बहुत ही प्रियकर होना स्वाभाविक है । मालूम देता है - उनके समय तक इस ग्रन्थ पर किसी विद्वानने कोई अच्छी सरल और विस्तृत टीका नहीं बनाई थी। इस लिये जिनेश्वर सूरिने इस ग्रन्थके हार्दको विशेषरूपसे स्फुट करनेके लिये और इसमें प्रतिपादित मन्तव्योंका सप्रमाण प्रतिष्ठापन करनेके लिये, इस पर यह संस्कृत वृत्ति बनाई है । जिनेश्वर सूरिकी यह वृत्ति भी हरिभद्र सूरिकी मूल कृतिके अनुरूप ही प्रौढ, सप्रमाण और परिमार्जित शैलीमें लिखी गई है । इसका प्रत्येक वाक्य और विचार, सुसम्बद्ध और सुनिश्चित अर्थका प्रकाशक है । मूलके प्रत्येक मन्तव्यको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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