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________________ जिनेश्वर सूरिकी ग्रन्थ-रचना । इनके स्वर्गवासके समयका सूचक कोई स्पष्ट उल्लेख हमारे देखनेमें नहीं आया; परन्तु इनके अतिप्रसिद्ध शिष्य अभयदेवाचार्यने अपनी बनाई हुई आगमोंकी टीकाओंमेंसे स्थानांग, समवायांग और ज्ञाता सूत्रकी टीकाएँ सं० ११२० में पूर्ण की थीं। इन टीकाओंके पीछे जो इन्होंने संक्षेपमें जिन शब्दोंमें अपने गुरुका वर्णन किया है उनसे भासित होता है कि शायद उस समय जिनेश्वर सूरि विद्यमान नहीं थे। उनका खर्गवास हो चुका था । अतः हमारा अनुमान है कि सं० १११० और ११२० के बीचमें कमी वे दिवंगत हुए होंगे । ७. जिनेश्वर सूरिकी ग्रन्थ-रचना । जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है (पृ. १४)- वर्द्धमानाचार्यके उल्लेखसे ज्ञात होता है कि जिनेश्वर सूरिने जैन धर्मके सांप्रदायिक सिद्धान्तोंके प्रतिपादक कतिपय ग्रन्थोंकी रचनाके उपरान्त काव्य, नाटक आदि जैसे सर्वसाधारणोपयोगी विषयोंके कुछ ग्रन्थोंकी भी रचना की थी; परन्तु ये सब रचनाएं अद्यापि उपलब्ध नहीं हुई। इनके शिष्य प्रशिष्यादिने इनकी 'अनेक-ग्रन्थ-प्रणेता के रूपमें प्रशंसा तो खूब खूब की है, लेकिन किसीने भी इन्होंने कितने और किन किन ग्रन्थोंकीर चना की इसका निश्चायक कोई उल्लेख कहीं नहीं किया । इससे इनकी ग्रन्थ-रचना-विषयक समप्रताकी कोई निर्णायक कल्पना नहीं की जा सकती । इनके गुरुभ्राता बुद्धिसागराचार्यने, इनके बनाये हुए ग्रंथोंमेंसे एक मात्र जैन तर्कशास्र प्रतिपादक 'प्रमालक्ष्म' ग्रन्थका उल्लेख किया है । इनके एक प्रधान शिष्य जिनभद्राचार्य (पूर्व नाम धनेश्वर )ने इनकी दूसरी एक विशिष्ट कृतिरूप 'लीलावती कथा' नामक रचनाका उल्लेख किया है । अभयदेव सूरिने इनके किसी ग्रन्थविशेषका नामोल्लेख तो नहीं किया परन्तु - जैसा कि ज्ञातादिसूत्रोंकी वृत्तियोंके प्रान्तोल्लेखोंसे सूचित होता है - इनके जैनाभिमत प्रमाणतत्त्व-प्रदिपादक ग्रन्थ, तथा नाना ग्रन्थोंकी वृत्तियां एवं कथाग्रन्थोंके निर्माता होनेकी प्रशंसात्मक स्तुति की है । अभयदेव सूरिने इनकी एक रचना 'षट्स्थानक प्रकरण' पर भाष्य लिखा जिसमें उक्त ग्रन्थके रचयिताके रूपमें इनका उल्लेख किया है । जिनपति सूरिने इनके बनाये हुए ‘पञ्चलिंगी प्रकरण' नामक ग्रन्थ पर विस्तृत टीका बनाई है जिसके उपोद्घातमें इनकी 'षट्स्थानक प्रकरण' और 'पञ्चलिंगी प्रकरण' इस प्रकार दो प्रकरण ग्रन्थोंकी रचनाका उल्लेख किया है । 'गणधरसार्द्धशतक' की बृहद्वृत्तिमें सुमति गणिने तथा जिनपालोपाध्यायने अपनी उक्त 'बृहत्पदावलि में इनके द्वारा रचित 'कथाकोशप्रकरण'का निर्देश किया है । इस प्रकार (१) प्रमालक्ष्म, (२) लीलावतीकथा, (३) षट्स्थानक प्रकरण, (४) पञ्चलिंगी प्रकरण और (५) कथाकोश-इन पांच ग्रन्थोंका नाम निर्देश तो उक्त ग्रन्थकारोंके कथनसे परिज्ञात होता है; और इन पांचों ग्रन्थों मेंसे, एक 'लीलावती कथा' को छोड कर ४ ग्रन्थ तो जैसा कि निम्नलिखित विशेषविवरणसे वाचकोंको विदित होगा, वर्तमानमें उपलब्ध भी है । 'लीलावती कथा' मूल रूपमें अद्यावधि कहीं उपलब्ध नहीं हुई। परन्तु उसका सार-भागात्मक रूप 'निर्वाणलीलावती' नामका ग्रन्थ जिनरत्न विद्वान्का बनाया हुआ उपलब्ध होता है । इन पांच ग्रन्थोंके अतिरिक्त दो वृत्ति रूपात्मक ग्रन्थ भी इनके उपलब्ध होते हैं, जिसमें एक तो हरिभद्रसूरिकृत 'अष्टक प्रकरण' की व्याख्या और दूसरा 'चैत्यवन्दन विवरण' नामकी व्याख्या है। ___ इन मुख्य प्रन्थोंके सिवा कुछ फुटकर 'कुलक', 'स्तवादि'के नाम भी इनकी रचनाके रूपमें गिनाये जाते हैं, परन्तु उनके विषयमें कुछ ज्ञातव्य उल्लेख हमारे देखनेमें नहीं आये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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