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________________ ફેબ્રુ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । कहा कि 'वत्स ! तुम इस प्रकारका कष्ट उठा कर क्यों चल रहे हो ?' । उन्होंने कहा 'देव ! हमको इस संसारमें किसी प्रकारके ऐहिक सुखकी अभिलाषा नहीं है । हमें तो शिव-वासकी उत्कंठा है इसलिये वह जैसे प्राप्त हो उसका उपाय बताओ ।' तब सोमेश्वरने कहा 'इस नगरमें एक जैन महर्षि रहते हैं उनके चरणों का आश्रय लो, जिससे तुमको अपने कल्याणके मार्गका दर्शन होगा ।' ऐसा कह कर शिवजी अन्तर्धान हो गये । दूसरे दिन सवेरे ये दोनों भाई वढवाणकी पौषधशाला में गये जहां वर्द्धमान सूरि धर्मोपदेश कर रहे थे । उनकी प्रशान्त मूर्ति देख कर वे दोनों भाई, अपने कंधों पर जलती हुई दीपिकाओंको निकाल कर उनके चरणों में गिरे और बोले कि 'सूरिवर ! हमें अपने धर्मकी दीक्षा दे कर मुक्तिका मार्ग बतलाईये। तब सूरिने कहा 'वत्स ! पहले तुम जैन मतके तत्त्वोंका अभ्यास करो, उनका हृदयमें विमर्श करो और फिर यदि तुम्हें वे रुचिकर लगें तो उनका अंगीकार करो ।” उन्होंने उनके उपदेशानुसार जैन धर्मके मूलभूत सिद्धान्तोंका अध्ययन करना शुरू किया। थोडे हो समयमें वे इनमें अच्छी तरह प्रविष्ट हो गये और उनकी श्रद्धा इनपर दृढ जम गई । तब उनको सूरिने दीक्षा दी और बडे भाईका नाम जिनेश्वर और छोटेका बुद्धिसागर ऐसा रखा । कुछ ही समय में वे दोनों बन्धु-मुनि जैन दर्शनके बड़े समर्थ पण्डित बन गये और उनका प्रभाव सर्वत्र फैलने लगा । तब फिर कईमान सूरिने उनको आदेश किया कि 'अणहिलपुर पाटनमें चैत्यवासी 'यतिजनोंका बहुत ही प्राबल्य हो गया है, वे सुविहित साधु - मुनियोंका वहां पर प्रवेश तक नहीं होने देते हैं, इसलिये तुम अपनी शक्ति और बुद्धिका प्रभाव दिखा कर वहां पर साधुओंके प्रवेश और निवासका मार्ग खुला करो ।' गुरुकी ऐसी आज्ञाके अनुसार वे फिर अणहिलपुर गये और वहांपर सोमेश्वर पुरोहितकी सहायतासे दुर्लभराजकी सभा में उन चैत्यवासियोंसे शास्त्रार्थ कर उनका पराजय किया और वहां पर बसतिवासकी स्थापना की । वहांसे फिर वे परिभ्रमण करते हुए मालव देशकी उज्जयिनी नगरीमें गये । वहांपर राजमान्य ऐसा सोमचन्द्र नामक ब्राह्मण था जिसके साथ उनकी अच्छी प्रीति हो गई । एक दिन उस ब्राह्मणने उनसे पूछा कि 'आप लोग तो 'चूडामणि' नामक ज्योतिष शास्त्रके बडे ज्ञाता हैं । क्या मेरे मनके एक प्रश्नका उत्तर देंगे ?' जिनेश्वरने कहा 'बताओ तुम्हारा क्या प्रश्न है ?" तब ब्राह्मणंने कहा "मेरे पूर्वजोंका कुछ महानिधि जमीनमें कहीं गडा हुआ पडा है पर उसका स्थान मैं नहीं जानता । सो आपके ज्ञानसे उसका कुछ पता लगे तो मुझ पर बडा अनुग्रह होगा । यदि वह मिल गया तो उसका आधा हिस्सा मैं आपको अर्पण कर दूंगा ।' जिनेश्वर सूरिने मनमें कुछ भावि सोच कर उसके कथनका स्वीकार किया और फिर अपने ज्ञानसे उसे उस स्थानको दिखाया । वहां पर खोदने पर वह महानिधि निकल आया । सोमचन्द्र ने कहा'मुनिवर ! इसका आधा हिस्सा आपका है सो आप उसे ले लीजिये ।' सूरिने इसके उत्तरमें कहा 'विप्र ! हमें इस अनर्थकारी अर्थकी अपेक्षा नहीं है । हम तो जो अपना निजका था उसे भी छोड़ कर चले आये हैं।' यह सुन कर वह ब्राह्मण चिन्तितसा हो गया । उसके मनमें आया कि यदि ये इसमेंसे कुछ नहीं लेते हैं तो फिर मेरा वचन तो मिथ्या हो जायगा । उसके मनकी इस समस्याको लक्ष्य कर सूरिने कहा 'विप्र ! हमने जो तुम्हारी संपत्ति मेंसे आधा हिस्सा लेनेका मनोभाव प्रकट किया है उसका असली आशय यह है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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