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________________ ३३ जिनेश्वर सूरिके चरितका सार। लिये तीन गाथाएँ दीं। इन गाथाओंका अर्थ यह है कि 'मरुदेवि नामक गणिनी आर्या, जो आपके गच्छमें थी, वह मर कर प्रथम वर्गके टक्कल नामक विमानमें, दो सागरोपम आयुष्यवाले एक महर्द्धिक देवके अवताररूपमें उत्पन्न हुई है । श्रमणपति जिनेश्वर सूरिको यह सन्देश पहुँचा देना और कहना कि अपने चारित्रके पालनमें उद्यत रहना, और विशेष कुछ नहीं।' ___ ब्रह्मशान्तिने आ कर उस श्रावकको उठाया और उसके कपडेके अंचल पर 'म स ट स ट च एसे ६ अक्षर (जो उक्त ३ गाथाओंके प्रत्येक अर्द्धखण्डके आदि अक्षर थे ) लिख दिये । यक्षने कहा- 'पाटनमें जा कर आचार्योंको यह अंचल बताना । जो इनका अर्थोद्घाटन कर सकेगा वही युगप्रधानाचार्य है ऐसा समझना ।' फिर वह श्रावक पाटन गया। वहांकी सब वसतियोंके आचार्योंको जा कर उसने वह वस्त्रांचल दिखाया पर किसीने उसका रहस्य न समझा । फिर जब जिनेश्वर सूरिके पास गया तो उन्होंने चिन्तन करके उस वस्त्रका प्रक्षालन किया तब उस पर उक्त ३ गाथाएँ लिखी हुई दृष्टिगोचर · हुई। श्रावकका निश्चय हो गया कि ये ही आजके 'यु ग प्रधानाचार्य' हैं। इस प्रकार भगवान् महावीरके उपदिष्ट धर्ममार्गकी प्रभावना करके जिनेश्वर सूरि देवगतिको प्राप्त हुए । उनके पश्चात् उनके पट्टधर जिनचन्द्र सूरि बने, जिनको १८ नाममालाएँ (शब्दकोश), मय सूत्रार्थके मनमें रम रही थीं। वे सर्व शास्त्रोंके जानकार थे । उन्होंने १८००० श्लोक प्रमाण 'संवेशरंगशाला' नामक महान् ग्रंथ भव्य जनोंके हितके लिये बनाया । जाबालिपुर (आधुनिक जालोर, मारवाड )में जब वे थे तब वहांके श्रावकोंके आगे 'चीवंदणमावस्सय' इस गाथासूत्रकी व्याख्या करते हुए जो सिद्धान्त संवाद उन्होंने बतलाये वे उनके शिष्यने लिख लिये थे । उस परसे तीन सौ श्लोकवाले एक दिनचर्या' ग्रन्थकी रचना की गई जो श्रावकोंके लिये बडा उपकारी सिद्ध हुआ । इस प्रकार वे भी महावीरके धर्मका यथार्थ प्रकाश कर खर्गको प्राप्त हुए। ___ इस तरह यह जिनपालोपाध्यायरचित जिनेश्वर सूरिके चरितका यथाक्षर सार है । सुमति गणिका चरित भी इसी प्रकारका-प्रायः अक्षरशः इससे मिलता हुआ है। सोमतिलक सूरिवर्णित जिनेश्वर सूरिके चरितका सार। अब यहां पर संक्षेपमें, सोमतिलक सूरिने जिस प्रकार इनका चरित-वर्णन, उक्त धनपाल कथामें किया है उसका भी थोडासा सार, पाठकोंको कुछ कल्पना आ जाय इस दृष्टिसे, दे दिया जाता है। __इस कथाके अनुसार, जिनेश्वर सूरिकी पूर्वावस्थाका वर्णन इस प्रकार है-मध्यदेशकी वाणारसी (बनारस) नगरीमें गौतम गोत्रवाला एक कृष्णगुप्त नामका ब्राह्मण था जिसके श्रीधर और श्रीपति नामके दो पुत्र हुए। वे दोनों भाई १८ विद्यास्थानके पारगामी थे, ब्राह्मण्य कर्ममें निपुण थे और परस्पर अत्यंत प्रेम रखने वाले थे। वे हमेशां गंगा नदीमें स्नान करके विश्वेश्वर महादेवकी पूजा-अर्चा किया करते थे। फिर किसी समय उनके मनमें सोमेश्वर महादेवकी यात्रा करनेकी इच्छा हुई इस लिये वे वहाँसे चल दिये । महादेवकी भक्तिके निमित्त अपने कंधोंपर खड्डे करके, उनमें दीपक रख कर, उनको जलाते हुए वे चलने लगे । इस तरह बहुतसा मार्ग काटते हुए वे गुजरातके वढवाण नगरमें पहुंचे । वहां पर जैनाचार्य वर्द्धमान सूरि ठहरे हुए थे । रातको जब वे दोनों भाई किसी जगह ठहरे हुए थे तब उनकी इस प्रकारकी देहकष्टदायक भक्तिके वश हो कर, सोमेश्वर देव प्रत्यक्ष हुए और उनको क०प्र० ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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