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________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । अभयदेवसूरिकृत उल्लेख । :: जिनेश्वर सूरिके, अनुक्रममें शायद तीसरे परन्तु ख्याति और महत्ताकी दृष्टिसे सर्वप्रथम, ऐसे महान् शिष्य श्री अभयदेव सूरि थे जिन्होंने जैन आगम ग्रन्थों में सर्वप्रधान जो एकादशाङ्ग सूत्र प्रन्थ हैं उनमेंसे नव अङ्ग सूत्रोंपर, सुविशद संस्कृत टीकायें बनाई । अभयदेवाचार्य अपनी इन व्याख्याओंके कारण जैन साहित्याकाशमें, कल्पान्तस्थायी नक्षत्रके समान, सदा प्रकाशित और सदा प्रतिष्ठित रूपमें उल्लिखित किये जायंगे । श्वेताम्बर संप्रदायके, पिछले सभी गच्छ और सभी पक्ष वाले विद्वानोंने, अभयदेव सूरिको बडी श्रद्धा और सत्यनिष्ठाके साथ, एक प्रमाणभूत एवं तथ्यवादी आचार्यके रूपमें, खीकृत किया है और इनके कथनोंको पूर्णतया आप्तवाक्यकी कोटीमें समझा है । अपने समकालीन विद्वत्समाजमें भी इनकी प्रतिष्ठा बहुत ऊंची थी । शायद ये अपने गुरुसे भी बहुत अधिक आदरके पात्र और श्रद्धाके भाजन बने थे । जिन चैत्यवासी यतिजनोंके विरुद्ध, जिनेश्वर सूरिने अपना दण्ड उठाया था उन्हीं यतिजनोंके पक्षके एक अग्रगण्य, राजमान्य और बहुश्रुत आचार्य द्रोणाचार्यने अपनी प्रौढ पण्डितपरिषद्के साथ, इन अभयदेव सूरिकी उक्त आगमग्रन्थोंपरकी व्याख्या-रचनाओंको बडे सौहार्दके साथ आद्योपान्त संशोधित किया था और इस प्रकार इनके प्रति बडा सौजन्य प्रदर्शित किया था । अभयदेव सूरिने भी बहुत ही कृतज्ञभावसे, इनके इस अनन्य सौजन्यका सादर स्मरण, अपनी उन रचनाओंमें स्पष्ट रूपसे किया है । अभयदेव सूरिने स्थानांग, समवायांग और ज्ञातासूत्रकी वृत्तियां अणहिल पुरमें, वि. सं. ११२० में समाप्त की तथा जैन आगमग्रन्थोंमें सबसे प्रधान और बृहत्परिमाण ऐसा जो भगवती सूत्र है, उसकी व्याख्या सं. ११२८ में पूर्ण की । इन्होंने अपने गुरुकी स्तुति अपनी इन व्याख्याओंके अन्तमें इस प्रकार की है 'चान्द्रे' कुले सदनकक्षकल्पे महाद्रुमो धर्मफलप्रदानात् । छायान्वितः शस्तविशालशाखः श्रीवर्द्धमानो मुनिनायकोऽभूत् ॥ तत्पुष्पकल्पौ विलसद्विहारसद्गन्धसंपूर्णदिशौ समन्तात् । बभूवतुः शिष्यवरावनीहवृत्ती श्रुतज्ञानपरागवन्तौ ॥ एकस्तयोः सूरिवरो जिनेश्वरः ख्यातस्तथाऽन्यो भुवि बुद्धिसागरः। तयोविनेयेन विबुद्धिनाऽप्यलं वृत्तिः कृतैषाऽभयदेवसूरिणा ॥ -भगवतीसूत्रकी व्याख्या। निःसम्बन्धविहारहारिचरितान् श्रीवर्द्धमानाभिधान् सूरीन् ध्यातवतोऽतितीव्रतपसो ग्रन्थप्रणीतिप्रभोः। श्रीमत्सूरिजिनेश्वरस्य जयिनो दीयसां वाग्मिनां तद्वन्धोरपि बुद्धिसागर इति ख्यातस्य सूरे वि ॥ शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणा विवृतिः कृता । श्रीमतः समवाय 'समासतः॥ -समवायानसूत्रकी वृत्ति । १ भगवतीसूत्रकी वृत्तिके अन्तमें अभयदेव सूरिने द्रोणाचार्यका उपकारस्मरण इस तरह किया है शास्त्रार्थ निर्णयसुसौरभलम्पटस्य विद्वन्मधुक्तगणस्य सदैव सेव्यः । श्रीनिर्वृताख्यकुलसन्नदपद्मकल्पः श्रीद्रोणसूरिरनवद्ययशःपरागः ॥ शोधितवान् वृत्तिमिमां युक्तो विदुषां महासमूहेन । शास्त्रार्थ निष्कनिकषणकषपट्टककल्पबुद्धीनाम् ॥ . इसी तरह ज्ञाता आदि अन्यव्याख्याओंके अन्तमें इस प्रकार संक्षेपमें उल्लेख किया है - निर्वृतिककुलनभस्तलचन्द्रद्रोणाख्यसूरिमुख्येन । पण्डितगुणेन गुणवस्प्रियेण संशोधिता घेयम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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