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________________ कथाकोष प्रकरण $१६ है । आशा है प्रस्तुत कथाकोशके परिचयके रूपमें हमने जो कुछ थोडा बहुत मार्गदर्शन कराने का प्रयत्न किया है उसको देख कर, हमारे देशवासी विद्वज्जन इस विषय में विशेष अध्ययन-मनन करने की ओर प्रवृत्त होंगे । • 1 इन पंक्तियों का आलेखन करते समय, मेरे हृदय में, मेरे उन सततस्मरणीय सहृदय सहायक सन्मित्र स्व० बाबू श्री बहादुर सिंहजी सिंघीकी पुण्य स्मृति, सविशेष रूपसे स्पन्दायमान हो रही है, जिनकी अभिलाषा इस प्रकारके सांस्कृतिक इतिहासके आलेखन और प्रकाशनके देखनेकी सदैव उत्कट रहा करती थी । जैन कथासाहित्य एवं अन्य तथाविध ऐतिहासिक साहित्यका इस प्रकार पर्यालोचन हो कर, तदनुसार एक सुविस्तृत एवं प्रमाणभूत 'जैन इतिहास' का आलेखन करनेकराने के विषय में भी उनकी बडी अभिरुचि रहती थी और वे इस विषय में सदैव मुझसे प्रेरणा करते रहते थे । वे चाहते थे कि मैंने अपने अध्ययन - चिन्तनके परिणाममें जो कुछ ऐतिह्य तथ्य सोचा-समझा है उसे ज्यों बने त्यों विशेषरूपसे लेखनबद्ध करता रहूं और प्रकाशमें रखता रहूं । उनकी उस अन्तिम रुग्णावस्था में भी, जब ता. ६ जनवरी सन् १९४४ के सन्ध्यासमय, मेरा जो उनसे आखिरी वार्तालाप हुआ उसमें भी, उन्होंने इस विषय में मुझसे अपना साग्रह मनोभाव प्रकट किया था । जिस प्रकारके ऐतिह्यतंध्यालेखनकी वे मुझसे अपेक्षा रखते थे उसी प्रकारका किंचित् आलेखन करनेका प्रयत्न मैंने इस निबन्ध में किया है । मेरा अन्तःकरण कहता है कि यदि वे आज जीवित होते तो जरूर इसको पढ कर बहुत प्रसन्न होते और अपना हार्दिक सन्तोषभाव प्रकट करते । मेरी यह भी श्रद्धा रहती है कि यदि परलोकस्थित उनकी आत्मा किसी तरह इस कृतिको ज्ञात कर सकेगी तो अवश्य वह वहां भी प्रसन्नताका अनुभव करेगी । I जिनेश्वर सूरिने अपनी इस कथा को प' रूप कृतिका उपसंहार करते हुए, अन्तमें अपने प्रयासके सफल होने की कामना इस प्रकार प्रकट की है - सम्मत्ताइ गुणाणं लाभो जह होज कित्तियाणं पि । ता होजणे पयासो सकयत्थो जयउ सुयदेवी ॥ अर्थात् - 'यदि किन्हीं भी मनुष्यों को - हमारी इस कृतिके पठनसे - सम्यक् तत्त्वादि गुणों का जो लाभ हुआ तो हम अपने इस प्रयासको सकृतार्थ सिद्ध हुआ समझेंगे ।' हम भी अन्तमें जिनेश्वर सूरिके ही इन वचनोंका अनुवाद करते हुए, यही कामना करते हैं कि इन ग्रन्थोंके पठन-पाठन से यदि किन्हीं भी जगज्जनोंके जीवनका, कुछ भी आध्यात्मिक विकास हो कर वह प्रगति के पथ पर अग्रसर हुआ तो, इस ग्रन्थमालाके संस्थापक, संरक्षक, संचालक और सम्पादक गणका प्रयत्न सफल हुआ सिद्ध समझा जायगा । किं बहुना ? तथास्तु | माघशुक्ला १३, सं. २००५ ( ता० ११-२-४९ ) [ स्वीय जीवनके ६१ वें वर्षका अन्तिम दिन ] सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ भारतीय विद्याभवन, बंबई Jain Education International - जिन विजय मुनि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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