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________________ प्रास्ताविक वक्तव्य $ १५ इतने अंश में ऐहिक और पारमार्थिक दोनों दृष्टिसे सुख और शान्तिका भोक्ता बनता है । जिसके आत्मामें इन गुणोंका चरम विकास हो जाता है वह मनुष्य सर्वकर्मविमुक्त बन जाता है और संसार के सर्व प्रकार के द्वंद्वोंसे परपार हो जाता है । जैसे व्यक्ति के जीवनविकास के लिये यह धर्म आदर्शभूत है वैसे ही अन्यान्य समाज के लिये और समूचे मानव समृह के लिये भी यह धर्म आदर्शभूत है । इससे बढ कर, न कोई धर्मशास्त्र और न कोई नीतिसिद्धान्त, मनुष्यकी ऐहिक सुख - शान्तिका और आध्यात्मिक उन्नतिका अन्य कोई श्रेष्ठ धर्ममार्ग बतला सका है । जैन कथाकारोंने सद्धर्म और सन्मार्ग के जो ये ४ प्रकार बतलाये हैं वे संसारके सभी मनुष्योंका, सदा, कल्याण करनेवाले हैं इसमें कोई शंका नहीं है। चाहे परलोकको कोई माने या नहीं, चाहे स्वर्ग और नरकको कोई माने या नहीं; चाहे पुण्य और पाप जैसा कोई शुभ अशुभ कर्म और उसका अच्छा या बुरा फल होनेवाला हो या नहीं; लेकिन यह चतुर्विध धर्म, इसके पालन करनेवाले मनुष्य या मनुष्यसमाज के जीवनको, निश्चित रूपसे सुखी, संस्कारी और सत्कर्मी बना सकता है इसमें कोई सन्देह नहीं है । संसारके भिन्न भिन्न धर्मोने और भिन्न भिन्न नीतिमार्गोंने ऐहिक और पारलौकिक सुखशान्तिके लिये जितने भी धार्मिक और नैतिक विचार प्रकट किये हैं और जितने भी आदर्शभूत उपाय प्रदर्शित किये हैं उन सबमें, इन जैन कथाकारोंके बतलाये हुए इन ४ सर्वोत्तम, सरल और सुगम धार्मिक गुणोंसे बढ कर, अन्य कोई धार्मिक गुण, सनातन और सार्वभौम पद पानेकी योग्यता नहीं रखते । में गुण सार्वभौम इसलिये हैं कि इनका पालन संसारका हर कोई व्यक्ति, विना किसी धर्म, संप्रदाय, मत या पक्ष के बन्धन के एवं बाधाके कर सकता है । ये गुण किसी धर्म, मत, संप्रदाय या पक्षका कोई संकेत चिन्ह नहीं रखते । चाहे किसी देश में, चाहे किसी जातिमें, चाहे किसी धर्म में और चाहे किसी पक्ष में- एवं चाहे किसी स्थिति रह कर भी, मनुष्य इन चतुर्विध गुणोंका यथाशक्ति पालन कर सकता है और इनके द्वारा इसी जन्म में, परम सुख और शान्ति प्राप्त कर सकता है । सनातन इसलिये हैं कि संसारमें कभी भी कोई ऐसी परिस्थिति नहीं उत्पन्न हो सकती, कि जिसमें इन गुणों का पालन मनुष्य के लिये अहितकर हो सकता हो या अशक्य हो सकता हो । यह है इन जैन कथा प्रन्थोंका श्रेष्ठतम नैतिक महत्त्व | इसी तरह, सांस्कृतिक महत्त्व की दृष्टिसे भी इन कथाग्रन्थोंका वैसा ही बहुत उच्चतम स्थान है । भारत वर्षके, पिछले ढाई हजार वर्षके सांस्कृतिक इतिहासका सुरेख चित्रपट अंकित करनेमें, जितनी विश्वस्त और विस्तृत उपादान सामग्री, इन कथाग्रन्थोंमेंसे मिल सकती है उतनी अन्य किसी प्रकारके साहित्यमेंसे नहीं मिल सकती । इन कथाओं में भारत के भिन्न भिन्न धर्म, संप्रदाय, राष्ट्र, समाज, वर्ण आदि विविध कोटिके मनुष्यों के, नाना प्रकार के आचार, विचार, व्यवहार, सिद्धान्त, आदर्श, शिक्षण, संस्कार, नीति, रीति, जीवनपद्धति, राजतंत्र वाणिज्य व्यवसाय, अर्थोपार्जन, समाजसंगठन, धर्मानुष्ठान एवं आत्मसाधन आदिके निदर्शक बहुविध वर्णन निवद्ध किये हुए हैं जिनके आधारसे हम प्राचीन भारतके सांस्कृतिक इतिहासका सर्वांगीण और सर्वतोमुखी मानचित्र तैयार कर सकते हैं। जर्मनीके प्रो. हर्टेल, विण्टरनित्स, लॉयमान आदि भारतीय विद्या संस्कृति के प्रखर पण्डितोंने, जैन कथासाहित्य के इस महत्त्वका मूल्यांकन बहुत पहले ही कर लिया था और उन्होंने इस विषय में कितना ही मार्गदर्शक संशोधन, अन्वेषण, समालोचन और संपादन आदिका उत्तम कार्य भी कर दिखाया था; लेकिन दुर्भाग्यसे कहो या अज्ञानसे कहो, हमारे भारतवर्षके विद्वानोंका इस विषयकी ओर अभीतक स्थूल दृष्टिपात भी नहीं हो रहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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