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________________ १२४ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । लिये पिताने कलाचार्यों द्वारा उसका विद्याध्ययन करवाया । पुत्रने यद्यपि गांधर्व, नाट्य, अश्वशिक्षा, शस्त्रसंचालन आदि कई कलाएं सीखी थीं तथापि सेठको उसमें अनुराग नहीं था। सेठ 'अर्थशास्त्र के महत्त्वको अधिक समझता था इसलिये उसने पुत्रसे कहा, कि 'गांधर्व, नाट्य आदि सब कलाएं तो परोपजीविनी कलाएं हैं । अर्थात् इन कलाओंके ज्ञाताओंका जीवन दूसरोंकी कृपा और सहायताके उपर निर्भर रहता है । हमको इनकी आवश्यकता नहीं । हमें तो जिससे 'त्याग, भोग, और धर्म' सिद्ध होता है उस 'अर्थ' से प्रयोजन है । वह 'अर्थ' जिसके द्वारा प्राप्त होता हो वही कला हमारे लिये महत्त्वकी कला है । इसलिये उस सेठपुत्रने 'धातुवाद' और 'रसवाद' की शिक्षा प्रावीण्य प्राप्त किया । इत्यादि । इससे हमें यह संकेत मिलता है कि जिनेश्वरसूरिके समयमें भी विपुल अर्थोपार्जनका उपाय 'धातुविज्ञान' और 'रसविज्ञान' समझा जाता था । आजके हमारे इस युगमें भी अर्थोपार्जनका सबसे बडा सहायक 'विज्ञान' यही हो रहा है। इसी सुन्दरीदत्त कथानकमें एक जगह (पृ. १७६) राज्यपालनके कार्यकी दुष्करताका वर्णन किया गया है जिसमें कौटल्यके अर्थशास्त्रगत विचारोंका ठीक अनुवाद दिया गया प्रतीत होता है । इसमें राजाको अपना राज्यपालन करते हुए किस तरह सब प्रकारसे सावधान रहना चाहिये, इसका जो वर्णन है उसमें कहा गया है कि- राजाको अपनी स्त्रीका भी विश्वास नहीं करना चाहिये । अपने पुत्रोंकी एवं अमात्य और सामन्तोंकी विश्वस्तताका भी सदा परीक्षण करते रहना चाहिये । हाथी, घोडे, वैद्य, महावत, महाश्वपति, दूत, सांधिविग्रहिक, पानीहारक, महानसिक, स्थगिकावाहक, शय्यापालक और अंगरक्षक आदि सब पर शंकाकी नजर रखनी चाहिये । ___ इस प्रकार, राजतंत्रकी रक्षाके लिये राजाओंको कैसे कैसे छल-कपट आदिके प्रयोगोंका उपयोग करना पडता है - इसका जो वर्णन दिया गया है वह कौटल्यके अर्थशास्त्रमें राजपुत्ररक्षण, निशान्तप्रणिधि, अमात्यशौचाशौचज्ञान आदि प्रकरणोंमें जो विधान मिलता है ठीक उसीका सूचन करनेवाला है । नागदत्त कथानकमें (पृ. १२-१३) एक राजकुमारको कालसर्पके डसनेका प्रसंग आलेखित है जिसमें यह बताया गया है कि किस तरह गारुडिकोंने गारुडशास्त्रोक्त मंत्र - तंत्र आदिका प्रयोग करके मृत राजकुमारको जीवित करनेका निष्फल प्रयत्न किया- इत्यादि । __इस तरह इस ग्रन्थमें कहीं पुत्रजन्मोत्सव, कहीं विवाहोत्सव, कहीं चैत्यपूजा-उत्सव आदि भिन्न भिन्न प्रकारके सामाजिक, धार्मिक और व्यावहारिक विषयोंके वर्णनके जहां जहां प्रसंग प्राप्त हुए वहां वहां, जिनेश्वर सूरिने अपने लौकिक और पारलौकिक बहुविध परिज्ञानका विशिष्ट परिचय करानेकी दृष्टिसे, अनेक प्रकारकी विचार-सामग्रीका संचय प्रथित करनेका सफल प्रयत्न किया है, और इसलिये जैन कथासाहित्यमें इस ग्रन्थका अनेक दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण स्थान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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