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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण। १२३ खाली वाणीके आडंबरसे कुछ नहीं होनेवाला है । यदि तुम जा कर उन साधुओंकी और सेठकी क्षमा नहीं मांगो तो मैं तुमको छोडनेवाला नहीं हूं।' राजाके कथनको ब्राह्मणोंने मान्य किया । साधुओंकी और सेठकी उन्होंने क्षमायाचना की । सेठकी इससे सर्वत्र प्रशंसा हुई कि- अहो ! सेठने साधुओंका कैसा प्रभाव बढाया है । इत्यादि । इस तरह श्रावक धर्मका पालन कर वह सेठ मर कर खर्गमें गया ।। जिनेश्वर सूरिका विविध विषयक शास्त्रोंका परिज्ञान __इस प्रकार प्रत्येक कथा जिनेश्वर सूरिने किसी-न-किसी विषयको उद्दिष्ट करके अपना बहुशास्त्रपरिज्ञान और सांप्रदायिक सिद्धान्त प्रकट करनेका प्रयत्न किया है। इन कथाओंमें जो प्रासंगिक वर्णन किये गये हैं उनसे ज्ञात होता है कि ग्रन्थकारको अपने सैद्धान्ति ज्ञानके विषयोंके सिवाय आयुर्वेद, धनुर्वेद, नाट्यशास्त्र, संगीतशास्त्र, कामशास्त्र, अर्थशास्त्र, धातुवाद, रसवाद, गारुड और तांत्रिक शास्त्र आदिके विषयोंका भी बहुत कुछ परिज्ञान था। सूरसेना-कथानकमें( पृ. २७-२८) गर्भवती स्त्रीको अपने गर्भकी ठीक परिपालना करनेके लिये किस तरहका अपना आहार विहार आदि रखना चाहिये इसका वर्णन आयुर्वेद शास्त्रके कथन मुताविक किया गया है । जिनदत्तके कथानकमें (पृ. २४) राजकुमारने धनुर्वेद शास्त्रके अनुसार जो शिक्षा प्राप्त की थी उसका उल्लेख किया है । इस शास्त्रमें धानुष्ककलाके आलीढ, प्रत्यालीढ, सिंहासन, मंडलावर्त आदि जिन प्रयोगोंका वर्णन आता है उनका संक्षिप्त निर्देश भी इस कथानकमें किया गया है। __ सिंहकुमारके कथानकमें (पृ. ४०-४१) गान्धर्व कलाका परिचायक कुछ वर्णन करते हुए, तंत्रीसमुत्थ, वेणुसमुत्थ और मनुजसमुत्थ नादोंका वर्णन किया है । नादका उत्थान कैसे होता है, उसके स्थानभेदसे कैसे खरभेद होते हैं, और फिर उसके ग्राम, मूर्च्छना आदि कितने प्रकारके रागभेद आदि होते हैं - इसका सूचन किया गया है । इसमें यह भी सूचित किया गया है कि यह शास्त्र तो बहुत बडा कोई लाख श्लोक परिमित विस्तारवाला है । ___ इसी कथानकमें आगे (पृ. ४५) भरतके नाट्यशास्त्रका उल्लेख है । सिंहनामक राजकुमारके सन्मुख एक कुशल नर्तिका जब नृत्य करने लगी और उसने नृत्यका प्रयोग करते समय यथास्थान ६४ हस्तक और ४ भ्रूभंगोंके साथ तारा, कपोल, नासा, अधर, पयोधर, चलन आदिक भंगोंका अभिनय किया और फिर राजकुमारकी परीक्षाके लिये कपोलभंगके स्थानमें ताराभंग करके विपर्यय अभिनय किया, तो राजकुमारने उसके उस विपर्यय भावके लिये पूछा कि- 'यह किस शास्त्रके विधानानुसार अभिनय किया जा रहा है । इसके उत्तरमें उसने कहा कि- 'भरतशास्त्रके अनुसार ।' तो प्रत्युत्तरमें राजकुमार कहता है कि- 'भरत शास्त्र तो सूत्र और विवरणके साथ सारा ही मेरे कंठस्थ है । उसमें तो कहीं ऐसा विधान नहीं है ।' इत्यादि । सुन्दरीदत्त कथानकमें (पृ. १७२-७३ ) धातुवाद और रसवाद शास्त्रका उल्लेख है । रसशास्त्र में रसके कितने प्रकार हैं और उससे किन पदार्थों की निर्मिति आदि होती है इसका संक्षिप्त सूचन है । सुन्दरीदत्त, सागरदत्त नामक सेठका इकलौता पुत्र था । उसको विविध प्रकार की विद्या-शिक्षा दिलानेके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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