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________________ ११४ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । -फिर उन श्रावकोंने उसको लोगोंके बी वमें जब ऐसा बकती हुई देखी तो उसे बांहसे पकड कर सुबन्धुके पास ले गये । उसने भी कहा कि- 'पापे, चल राजकुलमें ।' तो वह झटसे चलनेको तैयार हो गई । तब श्रावकोंने समझ लिया कि निश्चय ही इसमें राजाका कुछ कारस्थान है । लेकिन शासनदेवता सत्यकी जरूर रक्षा करेगी । सुबन्धुने फिर कहा- 'राजा प्ररुष्ट हुआ है और उसीने इससे ऐसा करवाया है । तब भी राजकुलमें जाना ठीक है ।' बादमें वे सब राजाके पास पहुंचे । उन श्रावकोंका अग्रणी एक यक्ष नामक श्रेष्ठी था उसने पहले राजासे निवेदन किया कि - 'महाराज, तपोवन तो राजरक्षित सुने जाते हैं । और शास्त्रोंमें भी कहा है कि - 'राजा न्यायपूर्वक प्रजाका परिपालन करता हुआ प्रजाके किये हुए धर्म कर्मका षष्ठांश भाग प्राप्त करता है । राजाके लिये सब दानोंसे अधिक दान प्रजाका परिपालन करना है ।' यह रंडा जो इस प्रकार अपने चिभडे हुए गाल, पडे हुए स्तन आदिक विरूप अंगोंके कारण, देखने पर भी उद्वेग उत्पन्न करती है और अपने जन्मांतरमें उपार्जित अशुभ कर्मके फल को इस प्रकार भुगतती हुई मी, साधुओं पर द्वेषभाव धारण कर उनके बारेमें असमंजस बातें बकती रहती है । इसलिये महाराज को इस विषयमें उचित उपाय करना चाहिये ।' • सुन कर राजाने उस रंडाको लक्ष्य करके कहा- 'हे हताशे, यदि तैंने धर्मनिमित्त अपना आत्मा समर्पित किया है तो फिर उसके लिये विवाद (झगडा ) किस बातका है ? अगर तैंने उसका भाडा (किराया) लिया है तो उसके लिये भी विवादकी क्या जरूरत है ? अगर तुझे भाडा नहीं मिला है तो समझ तुझे धर्म होगा, इसलिये इस विवाद ( झगडा )का कोई अर्थ नहीं है । अथवा जो तुझे भाडा चाहिये, तो ये श्रावक दे देंगे- फिर इसमें झगडेकी बात कहां रही ? अगर ये श्रावक न देना चाहेंगे तो यह धर्म मुझे ही हो; मैं वह दे दूंगा । इसलिये चले जाओ; इस झगडेका तो कुछ भी अर्थ नहीं है ।' सुन कर वह यक्ष श्रावक बोला- 'महाराज, क्या वे साधु ब्रह्मचर्यभ्रष्ट हैं जो आप ऐसा कह रहे हैं ?' राजाने कहा'मैंने अपना जो राजकीय लगाव है उसको छोड कर, और कुछ दान भी दे कर, तुम्हारा झगडा मिटाना चाहा है । यदि तुमको यह रुचिकर नहीं है तो फिर वे साधु आनी 'शुद्धि' करें ।' यक्षने उत्तरमें कहा'महाराज, यदि जो कोई किसीका दुश्मन बन कर, अंधे, पंगु, कोढी आदि जीवितनिरपेक्ष मनुष्योंद्वारा किसीको सताना चाहे और उसके लिये सताये जानेवाले मनुष्यको ही अपनी 'शुद्धि' बतलानी पडे, तब तो हगने-मूतनेके लिये भी 'शुद्धि' करनी होगी। ऐसा करने पर, फिर किसी कार्यविशेषकी कोई महत्ता ही नहीं रहती है और कोई 'दिव्य' प्रयोगके लिये स्थान ही नहीं रहता है । इससे तो यही सिद्ध होता है कि जो रक्षक समझा जाता है वही विलुपक ( भक्षक) बन रहा है ।' सेठके वचन सुन कर राजाको क्रोध हो आया और वह बोला- 'अहो देखो, इन बनियोंके ये बचन ! बोलो फिर तुम ही कहो, इसमें और क्या किया जाय ? यदि ऐसी 'शुद्धि' नहीं की जायगी तो फिर तुम्हारी स्त्रियों, बहुओं और पुत्रियोंकी विटजनोंसे रक्षा कैसे की जा सकेगी ?' यह सुन कर सोम नामक सेठने कहा- 'देव, समान धन और साधन वाले किसी व्यक्तिके द्वारा, किसी व्यक्ति पर, कुछ कलंक लगाया जाता है तो उस प्रसंगमें 'दिव्य' आदिके प्रयोग द्वारा 'शुद्धि' की जाती है । परंतु कलंक लगाने वाला 'हीन' कोटिका होता है तो उसका तो निग्रह किया जाता है ।' तब राजाने कहा- 'अखण्ड ब्रह्मचारी तो भिक्षु ( बौद्ध साधु ) ही होते हैं । श्वेतांबर (जैन साधु ) वैसे नहीं है । इसलिये यदि वे 'दिव्य' द्वारा अपनी 'शुद्धि' नहीं करना चाहें, तो भी मैं तुम्हारे दाक्षिण्यके कारण उनका जीवित हरण करना नहीं चाहूंगा; और नाक काटलेने आदिकी शिक्षा करने पर भी तुमको बडा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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