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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन -कथाकोश प्रकरण । ११३ उसको कहा कि- 'देवताका स्मरण करो।' तब उसके कायोत्सर्ग ध्यान करने पर देवता आई, तो उसको सपस्त्रीने कहा - 'राजा हमारा अनिष्ट करना चाहता है; इसलिये इसको कुछ शिक्षा देनी चाहिये ।' उत्तरमें देवताने कहा- 'जब यह कोई अपराध करेगा तब वैसा किया जायगा; तुम सब अभी निरुद्विग्नभावसे शान्त रहो ।' इधर उस जयगुप्त भिक्षुने एक चरिका ( जारण-मारण जादू-टोना आदि करते रहनेवाली दुःशील परिव्राजिका)को बुला कर कहा कि- 'इस सुचन्द्रको अपने फंदेमें फसा कर उसपर कुछ कलंक लगाओ। उसने स्वीकार किया । वह फिर एक समय, बे वक्त साधुओंके स्थानमें आई । सूरिने उसे कहा – 'एकाकी स्त्रीका साधुओंके उपाश्रयमें इस तरह आना निषिद्ध है ।' तब उसने कहा - 'मैं धर्मश्रवण करनेके लिये आई हूं।' तो सूरिने कहा - 'इसके लिये साध्वियोंके स्थानमें जाओ।' उसने फिर कहा - 'मेरे यहां आनेसे तुम्हारा क्या अपराध होता है ? तुम्हें अपनी चित्तशुद्धिको ठीक रखना चाहिये। तुम जब राजमार्गमें, चैत्यालयमें अथवा भिक्षाके लिये लोगोंके घरोंमें जाते हो तब क्या आंखों पर पट्टी बांधके जाते हो? इस प्रकारका चक्षुरिन्द्रियका निरोध करनेसे कुछ थोडा ही लाभ होता है । अन्तरकरणका निरोध करना चाहिये । अन्तरका निरोध होनेसे ही ब्रह्मचर्यका स्थैर्य होता है । मेरे यहां आनेसे तो तुम्हारी लोकोंमें उलटी पूजा बढेगी । इसलिये वृथा ही तुम मुझे रोकना चाहते हो।' सुन कर सूरिने कहा- 'इसका विचार लोगोंके सामने किया जाना चाहिये । अभी तुम अकेलीके साथ यहां पर हमें कोई बातचीत नहीं करनी है ।' सुन कर वह रुष्ट हुई और उठ कर चली गई। लोगोंके सामने जा कर कहने लगी- 'ये साधु तो ब्रह्मचर्यसे भ्रष्ट हैं । अपने व्रतको छोड कर इन्होंने मेरे साथ दुराचार किया। मैंने इनको संतुष्ट करके किसी तरह फिर व्रतमें स्थिर किया है' - इत्यादि । उसकी ये बातें सुन कर, अन्य लोक श्रावकोंको देख कर तालियां देते और हंसते हुए कहने लगे'क्यों भाई, सुनी है न अपने गुरुओंकी यह बात ?' तब श्रावकोंने उस स्त्री को फटकारते हुए कहा कि- 'अरे पापिनी, महामुनियोंके बारेमें ऐसा कहती हुई तूं नरकमें जायगी । तेरे इन झुलसे हुए गाल, लटकते हुए स्तन और शोभाहीन शरीरको देख कर, अन्य भी कोई मनुष्य तुझसे विषयसेवा करना नहीं चाहेगा तो फिर हे निर्लज्ज नारी, ये मुनि जो नित्य स्वाध्यायमें निमग्न रह कर कामका जिन्होंने उन्मूलन कर दिया है और जिनके चित्तको देवियां भी चलायमान नहीं कर सकतीं, वे तेरे साथ कामसेवाकी इच्छा करेंगे ? इनको वन्दन करनेके लिये, विविध प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत हो कर राजा, अमात्य, पुरोहित, क्षत्रिय, सेठ और सार्थवाह आदिके घरानों की बहु-बेटियां आती रहती हैं, परंतु उनकी तरफ इनका कभी किंचित् भी वैसा दृष्टिनिपात होते किसीने नहीं देखा और तूं निर्लज, इस प्रकार इन पर दोषारोपण कर रही है ?' तब वह बोली- 'अरे इस बातको तुम क्या जानो ? वह तो मैं ही जानती हूं जिसके आठों अंगोंका इन्होंने उपभोग किया है ।' श्रावकोंने कहा - 'जानेगी जब राजकुलमें (राजाके दरबार में ) घसीटी जायगी । ऐसी बातें करते हुए वे सब श्रावक इधर-उधर चले गये । फिर सुबन्धुमंत्रीके साथ सलाह करके वे सुचन्द्रगुरुके पास पहुंचे। उन्होंने गुरुसे वह सब हाल कह सुनाया । गुरुने कहा- 'वह यहां पर ऐसी ऐसी बातें करती हुई आई थी । हमने उसको सर्वथा. फटकार दिया था। मालूम देता है कि उसका इस प्रकार प्रलाप करनेके पीछे राजाका भी कुछ कारस्थान है । तब भी ऐसे बकती हुई उसको बांहसे पकड कर राजकुलमें घसीट ले जाओ। इसमें कुछ भी विलंब मत करो । अन्तमें सब अच्छा होगा।' क. प्र. १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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