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________________ १०८ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । 1 तो निश्चित है कि परलोक अवश्य है और पुण्य-पाप भी अवश्य हैं । इसलिये इनकी प्ररूपणा करने वाला मी कोई देव अवश्य होना चाहिये । परंतु वह देव अपने जैसे स्थूलदृष्टि वालोंको प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता । अतः जो कोई भी देवरूपसे हमें ज्ञात हों उसको प्रणामादि करते रहना चाहिये । उसके आयतन अर्थात् स्थान की सार-संभाल लेते रहना चाहिये और पूजादि कार्य करते रहना चाहिये। ऐसा करते हुए इनमें जो कोई देवाधिदेव होगा उसकी पूजासे हमारा निस्तार हो जायगा । इसके विपरीत जो कोई पाखंडी विशेष के वचनोंमें विश्वास रख कर, किसी एक ही देवकी उपासना करनेमें आग्रहबद्ध हो जाता है और अन्य देवोंकी तरफ अवज्ञाभाव धारण कर लेता है वह तत्त्वदर्शनसे वंचित रहता है । अतः तत्रदर्शनकी इच्छा रखने वाले मनुष्यको सर्वत्र समदृष्टि होना चाहिये' - इत्यादि । धर्मघोष सूरिका ऐसा निरपेक्ष उपदेश उन लोकोंके हृदयमें ठंस गया । उन्होंने समझा कि ये मध्यस्थ दृष्टि वाले हैं और सच कहनेवाले हैं । इससे उन लोगोंका जो जैनधर्मके प्रति विरोधभाव था वह हठ गया वे 'भद्रभाव' वाले बन गये । उनमेंसे जिनको जैन प्रवचन पर विशेष विश्वास हो गया वे सूरिके पास ' दर्शनप्रतिमा' का स्वीकार कर, 'दर्शन श्रावक' बन गये । जिनको देशविरति लेनेकी इच्छा हुई उन्होंने एकविधादि ' विरतिभाव' ग्रहण किया । इस प्रकार धर्मघोष सूरिके उपदेशसे जो धर्मानुरागी बने थे वे लोक, मुनिचन्द्रका अपने नरगमें आगमन जान कर और अपने धर्मगुरुके ये भागिनेय एवं ज्येष्ठ शिष्य हैं इस भावसे उनको वंदन करने आये । उन लोकोंमें जो 'भद्रभाव' वाले मनुष्य थे उनको मुनिचन्द्र ने पूछा कि - 'तुम्हारा धर्मानुष्ठान कैसा चलता है ?' तो उन्होंने कहा कि - 'आपके गुरुने जो सर्व देवोंको प्रणामादि करते रहनेका उपदेश दिया है वह ठीक चल रहा है ।' तब उस साधुने कहा- 'तुमको तो मेरे गुरूने ठग लिया है । उन्होंने तुमको और अपनेको - दोनोंको संसारमें भटकते रहनेके योग्य बना दिया है । तुमको मिथ्यात्व में चिपका कर संसार में भटकाना चाहा है और उन्मार्गका उपदेश करके अपनेको भी भवकूपमें गिराया है । ऐसे धर्मानुष्ठान से कुछ कार्यसिद्धि नहीं होती' - इत्यादि । इस प्रकारके उसके वचन सुन कर वे 'भद्रभावी' मनुष्यं वापस जैनधर्मके प्रति अश्रद्धावान् बन गये । चैत्य और साधुओंको बाधा करने वाले बन गये । फिर इस प्रकार वे मिथ्याभाव प्राप्त कर संसारगामी बने । 1 जिन्होंने 'सम्यक्त्वव्रत' ग्रहण किया था उनको वह कहने लगा कि - 'तुम्हारेमें गुरूने वैसी कौनसी योग्यता देखी जिससे तुमको 'सम्यक्त्ववत' दिया गया है ? सम्यक्त्वके योग्य तो वह होता है जिसमें औदार्य, दाक्षिण्य, पापजुगुप्सा, निर्मलबोध और जनप्रियत्व आदि गुण होते हैं । इनमेंसे तुममें कौनसे गुण हैं? किसानोंको और गरीबोंको चूसने वाले तुम बनियोंमें 'औदार्य' कैसा ? कौडी-कौडीके लिये पिता माता भाई और पुत्रादिके साथ भी लडाई झघडे करते दूसरोंकी संपत्तिको हर लेनेकी इच्छा रखने वालोंको 'पापसे जुगुप्सा' हों उनमें 'निर्मलबोध' कहां और जो अपने खजनोंसे लडते रहते हैं इस तरह तुम्हारा व्यवहार तो ऐसा आमूल हीन स्वरूपका है; इसलिये मैं क्या पूछताछ करूं ?' उसके इस प्रकार के दोषदर्शक वचनों को सुन कर उनके मनमें आया कि यह जो कहते हैं वैसा ही ठीक होगा । सो इस प्रकार वे 'सम्यक्त्वव्रत' से पतित हो गये । रहने वालोंमें 'दाक्षिण्य' कैसा ? हमेशां कैसी ? जिनमें ये दोष भरे हुए उनकी 'जनप्रियता' भी कैसी ? तुम्हारी धर्मप्रवृत्तिके विषय में --- इसी प्रकार जिन लोकोंके दिलमें प्रव्रज्या लेनेकी कुछ इच्छा हो रही थी, उनसे उसने कहा कि - ""प्रवज्या लेनेके लिये तुम्हारी क्या योग्यता है ? जिस प्रव्रज्याका आराधन चक्रवर्ती, बलदेव, महामांडलिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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