SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनेश्वरीय अन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । कहांका है और किसके बेटे हो ?' वह साधु वीतराग था, मिथ्या नहीं बोलने वाला था। उसने कहा'मैं अमुक गांवके अमुक आभीरका पुत्र हूं।' इस पर ईसरने पूछा- 'किसके पाससे तुमने यह व्रत लिया है और किससे शास्त्र पढा है ?' साधुने उत्तर दिया- 'किसीसे नहीं, मैं प्रत्येकबुद्ध ( खयं दीक्षित) हूं।' यह सुन कर उस ईसरने लोगोंको उद्देश करके कहा- 'अरे, देखो तो सही, आभीरपुत्र हो कर और किसीसे कुछ न पढ कर, हमको ठग रहा है । तो क्या हम तुझसे भी हीन हैं जो तेरे पास धर्म सुनें । अरे, ऊठो, चलो, यह क्या जानता है ? । किसी गणधारीके पास चलें ।' साधु पर आक्षेप करनेवाले उसके वचनको सुन कर वहां बैठी हुई जनसभाको आघात हुआ । किं तु यह तो एक तुच्छ किंकर है, ऐसा सोच कर किसीने कुछ कहा सुना नहीं । सब चुप हो कर बैठे रहे । वह ऊठ कर, गांवमें जहां दूसरे गणधारी साधु थे वहां गया । वहां पर व्याख्यान चल रहा थाउसमें विषय आया, कि जो पृथ्वीकायका संघट्ट करता है उसको उस निमित्तसे होनेवाला कर्मबन्ध छ महिनोंकी वेदना भुगतने पर छुटता है, परिताप करनेवालेको बारह वर्षकी वेदना भुगतने पर और उपद्रव करनेवालेको लाख वर्ष तक वेदनानुभव करने पर छुटता है ।' यह सुन कर ईसर बोला - 'अहो साधुमहाराज, क्यों ऐसा आलजाल बोल रहे हो! तुम तो ऐसा कह रहे हो जिसे सुन कर कोई भिक्षा भी तुम्हें देनेके लिये तैयार न होगा । तुम स्वयं पृथ्वीपर चलते हो तो फिर कैसे संघट्ट या परिताप नहीं होता और मूत्र और विष्ठा करनेसे उपद्रव भी करते ही हो । इससे तो तुम अन्यथावादी और अन्यथाकारी सिद्ध होते हो । अरे भाइयो, ऊठो इसके पाससे, और जहां वह प्रत्येकबुद्ध उपदेश कर रहा है उसके पास चलो।' ऐसा कह कर वह वहांसे फिर उसी जगह गया। वहां भी उस समय उसी विषय पर व्याख्यान हो रहा था। तब ईसर बोला-'अहो महाराज, ऐसा अनाप-सनाप मत कहो । तुम आभीरपुत्र हो कर क्या जानते हो ? क्या पृथ्वी ऊपर चलते हुए तुम संघटन, परिताप, उपद्रवादि नहीं करते ? इससे तो तुम्हारी प्रव्रज्या ही निरर्थक है । सदैव पृथ्वीकायका संघटनादि जनित कर्म परलोकमें जा कर भोगना होता है । इसलिये तुम ठीक धर्मोपदेश करना नहीं जानते । अरे लोगो, ऊठो यहांसे और आओ मेरे पास । मैं स्वयं तुमको ऐसा अच्छा धर्मोपदेश सुनाता हूं जो सुखपूर्वक किया जा सके ।' ऐसा कहता हुआ वह दूसरी जगह जा कर बैठ गया और आने-जाने वाले लोगोंसे अपना मनःकल्पित उपदेश करने लगा। इस तरह उसके कहते हुए, धर्माभिमुख जनोंको विपर्ययभाव पैदा करते हुए, अभिनव धर्मियोंको सन्दहेशील बनाते हुए, दृढधर्मियोंको सविशेष कलुषितभाव उपजाते हुए और साधुओं पर अभ्याख्यान देते हुए उसने सातवीं नरकका आयुष्य उपार्जन किया । इतनेमें भवितव्यताके वश उसके सिरपर बीजली पडी और मर कर वह सातवीं नरकमें गया। इसलिये हे भाईयो, ऐसे विचारोंसे कोई मतलब नहीं है । साधुजनोंकी निन्दा करनेसे निश्चित रूपसे दुर्गति होती है । इस कथनको सुन कर, उन सब श्रावकोंको संवेगभाव हो आया और वे सब बोले कि 'भाई, तुमने जो कहा है सो सही है ।' ___ इस अवसर पर मनोरथने कहा - 'जो मन्दभाग्य होते हैं उन्हींको ऐसे असद् विकल्प हुआ करते हैं । जो ऐसा कहते हैं कि साधुओंको अचिंतित कैसे प्राप्त हो सकता है? - सो सुनो, तुम जानते ही हो कि मेरी दुकान पर रोज सेंकडों घडे घीके लिये-दिये जाते हैं और बेचे जाते हैं; सेंकडों मन गुड-खांडका लेन-देन होता है; सेंकडों ही गांठे कपडेकी ली-दी जाती हैं और हजारों ही कंबल खरीदे और बेचे क० प्र० १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy