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________________ ૯૮ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । जाने लगा और नाना प्रकारके व्यंजनोंसे पूर्ण, उष्ण एवं स्निग्ध भोजन दिया जाने लगा । सोनेके लिये कोमल स्पर्शवाली शय्या बनाई गई । इन उपचारोंसे कुछ ही समयमें उसका शरीर ठीक हो गया । तब गुरु वहांसे विहार करनेका विचार करने लगे । परंतु कण्डरीक, वैसे परित्यागी हो कर भी आहारादिमें मूच्छित हो कर, वहांसे विहार करने की इच्छा नहीं रखने लगा । राजा उसके अभिप्रायको किसी प्रकार जान कर कहने लगा- 'धन्य हो भाई ! तुम, जो इस प्रकार स्नेहके बन्धनको छोड़ चुके हो और हम तुम्हारे विरह से कातर बने हुए हैं । तुम अपने गुरुके साथ विहार करनेको उद्यत हो रहे हो सो ठीक ही है; क्यों कि तुम्हारे जैसे परित्यागिको वही शोभा देता है । परंतु कभी कभी हमारा भी स्मरण करते रहना ।' यह सुन कर कण्डरीकने मनमें सोचा - 'भाई के मनमें तो मेरे विषय में ऐसी संभावना हो रही है । मैं इसे कैसे अन्यथा करूं ? इसलिये मुझे यहांसे विहार करना ही अच्छा है ।' यह विचार कर वह बोला'गुरुमहाराज जब विहार करना चाहते हैं तब मुझसे कैसे यहां पर रहा जा सकता है ?' सुन कर पुण्डरीकने कहा - 'सो तो तुम्हारे जैसोंके योग्य ही है।' इस प्रकारके उपाय द्वारा राजाने उसे वहांसे विहार करवाया ।" इत्यादि । पार्श्व श्रावक कहता है - 'इस प्रकार अन्य साधुको भी- जो कोई किसी प्रकारसे शिथिलमनस्क हो जाता हो तो - अनुकूल वचन द्वारा विश्वास उत्पन्न करके विहारकार्यमें उद्यत बनाना चाहिये । और जो कोई अपनी वाचालता दिखला कर प्रत्यनीक भावको प्रकाश करता है और कर्णकटु ऐसा असंबद्ध कथन सुसाधुके विषयमें करता है; तथा यथास्थित आगमको न जानता हुआ भी तद्विषयक विचारोंमें सिर मारता है, वह शान्तस्वभावी साधुओं में भी 'कुपितभावका' आविर्भाव करता है । इस प्रकार साधुओंके विषयके कुविचारोंको सुन कर अभिमुख जनोंको धर्ममें विघ्न होता है और साधुओंको असमाधि । साधुका अभ्याख्यान करनेसे जीवको दीर्घ संसारीभाव ( बहुत काल तक संसारमें परिभ्रमण करते रहनेका पापकर्म ) प्राप्त होता है; और ईसर की तरह अत्यंत दुःखका भागी बनता है ।' यह कथन सुन कर वे सब श्रोताजन बोले कि - 'भाई, वह कौनसा ईसर था, जिसने साधुका अभ्याख्यान करनेसे दीर्घसंसारित्व प्राप्त किया ?' इस पर पार्श्वने निम्न प्रकार ईसर की कथा कह सुनाई - पार्श्व श्रावकका कहा हुआ ईश्वरका कथानक । अतीत कालमें एक गांवमें एक आभीरपुत्र पास के किसी दूसरे गांवसे, किसी प्रयोजनके निमित्त अया । उस गांव में रातको एक तीर्थंकर मोक्ष प्राप्त हुए, इससे देवताओंने आ कर वहां उद्योत किया और विमानों से आकाशको आच्छादित कर दिया । आभीरदारकको यह दृश्य देख कर आश्चर्य हुआ और वह मनमें सोचने लगा, कि ऐसा मैंने कभी कहीं देखा है । इस प्रकार चिंतन करते हुए उसे जातिस्मरण ज्ञान हो आया । पूर्वजन्म में साधुधर्मका पालन करके वह मर कर स्वर्गमें गया था - - इसका साक्षात्कार उसे हुआ और उस जन्ममें ज्ञानका जितना अध्ययन किया था उसकी स्मृति हो आई । उसका मन फिर संविग्नभावको प्राप्त हो गया और उसने स्वयं पंचमुष्टि लोच कर सामायिक व्रत ले लिया । देवताने आ कर उसे साधुवेष उपकरण दे दिये । वह फिर एक विचित्र स्थानमें जा कर बैठ गया जहां लोगोंका समूह भी आ आ कर जमने लगा । वह उन लोगोंको धर्मोपदेश देने लगा । इस प्रसंग में, उस प्रसिद्ध गोशालक ( जो भगवान महावीरका शिष्य बन कर पीछेसे उनका प्रतिस्पर्धी धर्माचार्य बना था ) का जीव जो उस समय, ईसर नामसे कोई कुलपुत्रकके रूपमें अवतरित हुआ था, वह भी उस जनसमूहमें आ कर बैठ गया । उसने फिर उस प्रत्येकबुद्ध मुनिको पूछा, कि 'तुम्हारा जन्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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