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________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । ८ वी कथा जिनदेवके गुणगानके फलखरूपको बतानेके लिये कही गई है । ९ वी साधुके वैयावृत्त्यकर्मके फलको दिखानेवाली भरत चक्रवर्तिकी प्रसिद्ध कथा है । १० वीं से लेकर २५ वीं तककी १६ कथाएं साधुओंको दान देनेसे कैसा फल मिलता है इसके उदाहरण-खरूपमें कही गई हैं । फिर ३ कथाएं जैन शासनकी उन्नति करनेके फलकी निदर्शक हैं । दो कथाएं साधुजनोंके दोषोंकी उद्भावना करनेसे कैसा कटु फल मिलता है इसके उदाहरण में हैं । इसी तरह १ कथा साधुजनोंका अपमान निवारणके फलकी वाचक, १ कथा विपरीत ज्ञानके फल की प्रकाशक, १ धर्मोत्साहकी प्रेरणाके फलकी सूचक, १ अपरिणत जनको धर्मदेशनाके वैयर्थ्यकी निरूपक, १ जिनशासनकी सद्देशनाके महत्त्वकी निदर्शक; एवं एक जैन धर्ममें उत्साहप्रदान करनेके फल की द्योतक है । __ ये सब कथाएं प्रायः प्राकृत गद्यमें लिखी गई हैं। कहीं कहीं प्रसंग वश कुछ संस्कृत पद्य उद्धृत किये गये हैं और दो-एक स्थानोंमें अपभ्रंशके भी पद्य दिये गये हैं । एक देशी रागमें गाई जानेवाली अपभ्रंश चउप्पदिका ( चौपाई ) भी इसमें उपलब्ध होती है ( देखो, पृ० ४२-३). __ कथाओंकी प्राकृत भाषा बहुत सरल और सुबोध है । इसमें तत्सम और तद्भव शब्दोंके साथ सेंकडों ही देश्य शब्दोंका भी उपयोग किया गया है जो प्राकृत भाषाओंके अभ्यासियोंके लिये विशिष्ट अध्ययनकी सामग्रीरूप है । ग्रन्थकारकी वर्णन-शैली सुश्लिष्ट और प्रवाह-बद्ध है । न कहीं विशेष समासबहुल जटिल वाक्योंका प्रयोग किया गया है; न कहीं अनावश्यक, शब्दाडंबरद्योतक अलंकारोंका उपयोग किया गया है । स्पष्टार्थक और समुचित-भाव बोधक छोटे छोटे वाक्यों द्वारा कर्ताने अपना वर्ण्य विषय बड़े अच्छे ढंगसे व्यक्त किया है। कथाओंका आरंभ, पर्यवसान और अन्तर्गत वस्तुवर्णनकी शैली, तो जो जैन कथाकारोंकी एक निश्चित पद्धति पर रूढ हुई है, वही शैली इसमें भी प्रयुक्त है । क्या मनुष्य, क्या देव और क्या पशु-पक्षी आदि क्षुद्र प्राणी- सभी जीवात्माओंको जो सुख-दुःख मिलता है वह सब अपने पूर्वकृत अच्छे बुरे कर्मका फल-स्वरूप है । कर्मके इस त्रिकालाबाधित नियमकी सर्वव्यापकता और सर्वानुमेयता सिद्ध करनेकी दृष्टि से ही प्रायः समग्र जैन कथाओंकी सभी घटनाएं घटाई जाती हैं । प्रत्येक प्राणीके वर्तमान जन्मकी घटनाओंका कारण पूर्व जन्मका कर्म है और उस पूर्व जन्मके कर्मका कारण उसके पहलेके जन्मका कृत्य है। इस प्रकार जीवात्माकी जन्म-परंपराका और उसके सुखदुःखादि अनुभवोंका कार्यकारणभाव बतलाना और उससे छुटकारा पानेका मार्गबोध कराना यही जैन कथाकारोंका मुख्य लक्ष्य रहा है । जिनेश्वर सूरिने भी इसी लक्ष्यको सामने रख कर इस कथानक-संग्रह की रचना की है इससे इसकी शैली मी वही होनी थी जो अन्य कथाग्रंथोंकी होती है । परंतु जैसा कि हमने ऊपर 'निर्वाणलीलावती'के वर्णनमें सूचित किया है - जिनेश्वर सूरि एक बडे सिद्धहस्त ग्रन्थकार हैं और अपनी वर्ण्य वस्तुके खरूप-चित्रणमें ये अच्छे निपुण और प्रतिभाशाली कवि हैं । अतः जहां कहीं इन्होंने प्रासंगिक वर्णनका आलेखन किया है वह बहुत ही सजीव और खाभाविक मालूम देता है । इन वर्णनोंमें तत्कालीन सामाजिक नीति-रीति, आचार-व्यवहार, जन-खभाव, राज-तंत्र एवं आर्थिक तथा धार्मिक संगठन आदि बातोंका बहुत अच्छा चित्रण किया हुआ मिलता है जो भारतकी तत्कालीन सांस्कृतिक परिस्थितिका अध्ययन और अनुशीलन करनेवाले अभ्यासियोंके लिये मी पठनीय एवं मननीय सामग्री-खरूप है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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