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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । ७. कथा कोशप्रकरणम् । जिनेश्वर सूरिकी उपलब्ध कृतियोंमें यह प्रस्तुत 'क था कोश' नामक ग्रन्थ शायद अन्तिम रचना है । इस रचना के विषयमें उक्त 'गणधर सार्द्धशतक वृत्ति' तथा 'बृहदुर्वावलि' में लिखा है, कि जिनेश्वर सूरिने एक समय मारवाड के डिंडूआना नामक गांवमें चातुर्मास रहते हुए वहांके चैत्यवासी आचार्य के पाससे व्याख्यानमें बांचने लायक किसी पुस्तककी मांग की, तो उसने अस्वीकार कर दिया । तब उन्होंने स्वयं इस ग्रन्थकी नई रचना की और श्रोताओंको व्याख्यानमें सुनाया । जिनेश्वर सूरिने इस ग्रन्थकी रचना समाप्तिका सूचक समय तो इसमें अंकित किया है, लेकिन स्थानका सूचन नहीं किया; इससे यह तो निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि उपर्युक्त कथनमें कितना तथ्य है । तथापि गुर्वावलि आदिकी श्रुतिपरंपराकी प्राचीनताका विचार करनेसे उक्त कथनमें अश्रद्धा करने का कोई खास कारण नहीं मालूम देता । इस ग्रन्थके अन्तिम प्रशस्ति-लेख से ज्ञात होता है कि इसकी रचना वि. सं. ११०८ के मार्गशीर्ष मासकी कृष्णपंचमी के दिन पूर्ण हुई थी । इसकी प्रथम प्रति जिनभद्र सूरिने लिख कर तैयार की थी और फिर उस परसे अन्य अन्य पुस्तक लिखे गये । ७३ यह ग्रन्थ मूल और वृत्ति रूप है । मूल गाथा बद्ध है और वृत्ति गद्यरूपमें है । मूल तो बहुत ही संक्षिप्तरूपमें है - कुल ३० गाथाएं है । इन गाथाओं में जिन कथाओंका नामनिर्देश किया गया है वे कथाएं वृत्तिके रूपमें विस्तार के साथ गद्यमें लिखी गई हैं । मुख्य कथाएं ३६ हैं और अवांतर कथाएं ४ - ५ हैं । इस तरह सब मिलाकर प्रायः ४०-४१ कथाएं इसमें गुम्फित हैं । इन कथाओं में की बहुतसी कथाएं तो पुराने ग्रन्थोंमें जो मिलती हैं उन्हींको ग्रन्थकारने अपनी भाषा में अपने ढंग से प्रथित की हैं; परन्तु कुछ कथाएं स्वयं जिनेश्वर सूरिकी नई भी कल्पित की हुई मालूम देती हैं । इसका उल्लेख उन्होंने मूलकी २६ वी गाथामें स्पष्ट रूपसे कर भी दिया है । इस गाथामें वे कहते हैं कि इस प्रकरणमें हमने जो कथानक कहे हैं उनमेंके बहुतसे तो प्रायः जैनशास्त्रों में चरितरूपसे प्रसिद्ध ही है, परंतु भावुक जनोंके उपकारार्थ कुछ कथानक अपने परिकल्पित भी इसमें हमने निबद्ध किये हैं । मालूम देता है इस प्रकारके कल्पित कथानकोंकी रचनाके विषयमें उस समयके कुछ पुराणप्रिय विद्वानोंका विरोधभाव रहता था - जैसा कि आज भी जैन साधुओंमें ऐसा विरोधभाव यत्र-तत्र दृष्टिगोचर हो रहा है - और वे कल्पित कथाओंकी सृष्टिको शास्त्रविरुद्ध समझते थे । इसलिये जिनेश्वर सूरिने इस ग्रन्थ में अपना स्पष्ट अभिप्राय व्यक्त कर दिया है कि ये कल्पित कथानक भी उसी तरह भव्य जनोंको हितकारी हो सकते हैं जिस तरह पुराणप्रसिद्ध चरितवर्णन होते हैं । अपने कथन की पुष्टिके लिये वे २७-२८ वीं गाथामें ऐसा हेतु बताते हैं - इस प्रकारका जो चरित-वर्णन किया जाता है उसका केवल यही हेतु है कि उसके श्रवणसे भविक जीवों की सत् क्रियामें प्रवृत्ति हो और असत् क्रिया से निवृत्ति हो । यही फल यदि कल्पित वर्णन से भी होता हो और वह वर्णन यदि शास्त्रविरुद्ध विचारका सूचक न हो तो उसके कथनमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये । इस कथा कोशकी संकलनासे मालूम देता है कि इसकी रचनामें कर्ताका उद्देश किसी विशिष्ट विषयका निरूपण करना नहीं है । सामान्य श्रोताओंको जैन साधुओं द्वारा सदैव दिये जानेवाले जिनदेवकी पूजा आदि स्वरूप प्रकीर्ण उपदेशको ले कर ही ये कथाएं ग्रन्थबद्ध की गई हैं । इनमेंकी पहली ७ कथाएं, जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेसे क्या फल मिलता है इस विषयको लक्ष्य करके कही गई हैं । क० प्र० १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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