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________________ द्वितीयं काण्डम् 'लोकवर्गः १० सवतः परितो विष्वक् समन्ता दभितस्तथा । अव्ययवर्गः समाप्तः ॥१०॥ अर्थ में 'मृषा, मिथ्या' है। (५) वर्तमान अर्थ में 'अस्ति' है। (६) प्रणाम अर्थ में 'नमः' है ! (७) सर्वतः अर्थ में 'सर्वतस् , परितस् , विश्वक, समन्तात्, अभितसू' ये पांच शब्द हैं। ॥ अव्ययवर्ग समाप्त ॥ ॥ इति प्रथमः काण्डः समाप्तः ॥ -०-० ॥श्री॥ ॥ अथ द्वितीयकाण्डम् ॥ ॥ अथ लोकवर्गः प्रारभ्यते ॥ लोकोऽयं जगती स्त्री स्याद् जगद् भुवनविष्टपम् । भरतैरवतानि स्यु विदेहाः कर्म भूमयः ॥१॥ अन्ये हैमवताद्याः स्युस्त्रिशच्चाऽकर्मभूमयः । और्यावों जन्मभूमिः सत्तीर्थङ्कर चक्रिणाम् ॥२॥ आचारवेदिः पूण्याभू दक्षिणार्धस्य मध्यमः । (१) लोक के पांच नाम- लोक १ पुं०, जगती २ स्त्री०, जगत् ३ भुवन ४ विष्टप ५ नपुं० । (२) पांच भरत वर्ष, पांच ऐरवत वर्ष, पांच महाविदेह हैं । ये पन्द्रह क्षेत्र कर्मभूमि हैं। पांच हैमवत, पांच हैरण्यवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यक वर्ष, पांच देवकुरु, पांच उत्तरकुरु ये तीस अकर्मभूमि हैं, ये जुगलिक क्षेत्र ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016064
Book TitleShivkosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherKarunashankar Veniram Pandya
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size13 MB
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