SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय काण्डम् ३६३ 'इतरेतरयोगे तु द्वन्द्वेऽश्ववडवौ स्मृतौ । तथाऽश्ववडवा वाप्यश्ववडवं समाहते ॥२०॥ सूर्य चन्द्र समायुक्तः कान्तोऽयः पूर्व एव च । रल्लकञ्चानुवाकश्च वटकश्च कुडङ्गकः ॥ २१ ॥ न्युङ्खः पुंखः समुद्रश्च खट पट्टविटाः घटः । घट्ट कोहार हट्टाच पिचण्ड गोण्ड पिण्डवत् ||२२|| किणो घुणो वरण्डश्च करण्डो लगुडो गडुः । लिङ्गादिनिर्णयवर्गः ५. (१) इतरेतरयोगद्वन्द्व में अश्ववडवो, अश्ववडवाः, अश्ववडवान् इस प्रकार पूर्वपद के अनुसार पुल्लिङ्ग में प्रयुक्त होते हैं किन्तु पर पद के अनुसार स्त्रीलिङ्ग में नहीं होते । परन्तु समाहार द्वन्द्व में अश्ववडवं ऐसा हो नपुंसक में प्रयुक्त होता है । (२) सूर्य शब्द पूर्वक, एवं चन्द्रशब्दपूर्वक तथा अयः शब्द पूर्वक कान्त शब्द पुल्लिङ्ग में प्रयुक्त होते हैं जैसे- सूर्यकान्तः, चन्द्रकान्तः, अयस्कान्तः इत्यादि । (३) रल्लक ( पक्ष्म कम्बल) शब्द अनुवाक (ऋग्वेद-यजुर्वेदसमूह) शब्द, वटक (वाड़ा) शब्द, कुडङ्गक (वृक्षलतागृह) शब्द, न्युङ्ख (मनोज्ञ, सामवेद) का छेप्रणव) शब्द. पुङ्ख (धनुष्काण्डमूल) शब्द समुद्र (संपुट) शब्द, खट (टङ्की, कूप शब्द, पड ( पाटा शिला) शब्द, विट ( लम्पट ) शब्द घट (घड़ा) शब्द, घट्ट (घाट, अरघट्ट) शब्द, कोट्टार (नागरकूप) शब्द, हड्ड (दुकान) शब्द, पिचण्ड गोण्ड पिण्ड शब्द के समान पुल्लिङ्ग में प्रयुक्त होते हैं । एव किण (मांस ग्रन्थि ढेला) शब्द घुण (धूप) शब्द वरण्ड (मुख का रोग विशेष) शब्द, करण्ड (मधुकोष) शब्द, एवं लगुड (यष्टि) शब्द, तथा गड्डु (गले का घेघ) शब्द पुल्लिङ्ग में प्रयुक्तः होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016064
Book TitleShivkosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherKarunashankar Veniram Pandya
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy