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________________ तृतीयकाण्डम् नानार्थवर्गः ३ वितर्क प्रश्नयोः स्वित् धिक निन्दा भर्त्सनयोः उत। विकल्पाऽप्यर्थयो पश्चात् प्रतीच्यां चरमे वृथा ॥२६४॥ निरर्थकेऽविधौ पश्चात सादृश्येऽप्यनु निश्चये । निःशेषे निर" विषादाऽति शुक्षु हा वोपमोदिषु ॥२६५।। शङ्का समुच्चय प्रश्न गर्दा संभावनाः अपि । अबधारण हेत्वो "हिं परिप्रश्न वितर्कयोः ॥२६६॥ हु प्रबन्धे च निकटेऽतीते वाऽऽगामिके पुरा । पुरार्थे प्रथमे प्राच्यां पुरस्तादग्रतो, बत् ॥२६७॥ (१) स्वित्' वितक प्रश्न पादपूर्ति में । (२) 'धिक्' निन्दा (दोष कीर्तन) भर्त्सन (अपकार शब्द से भयोत्पान) में । (३) 'उत' समुच्चय रूप प्रश्नरूप अप्यर्थ में विकल्प में । (४) 'पश्चात्' प्रतीची चरेम (सप्तम्यन्त पञ्चम्यन्त प्रथमान्त 'अवर' शब्द से निपातित है।) (५) 'वृथा (वृषा)' प्रयोजन विना वन्ध्य विधि विवर्जित में । (६) 'अनु' होन सहाथै पश्चात् सादृश्य आयाम समोप लक्षणादि अनुक्रम में । (७) 'निर निस्' निःशेष निषेध कान्ता आदि अर्थ में निश्चय में 'नि' हैं। (८) 'हा' विषाद दुःस्व शोक कुत्सा में । (९) 'वा व' उपमां विकल्प वितर्क एवार्थ इवार्थ पादपुरण समुच्चय में। (१०) 'अपि' शङ्का समुच्चय प्रश्न गर्दा संभावना में। (११) 'हि' अवधारण हेतु पादपूर्ति विशेष प्रश्न हेत्वपदेश संभ्रम असूया में, 'हो' दुःखहेतु विषाद विस्मय में । (१२) 'हु' परिप्रश्न विकल्प में। (१३) 'पुरा' प्रबन्ध निकट अतीत आगामिक में । (१४) 'पुरस्तात् अग्रतसू' प्राची पुरार्थ प्रथम में । (१५) 'बत' खेद अनुग्रह संतोष मनुकम्पा आमन्त्रण में । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016064
Book TitleShivkosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherKarunashankar Veniram Pandya
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size13 MB
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