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________________ - तृतीयकाण्डम् नानार्थवर्गः ३ 'इति प्रकरणे हेतु प्रकाशादि समाप्तिषु ॥२५८॥ तिर्यगर्थे तिरोऽन्तों प्रौदुर्नामप्रकाशयोः । अंल वारण पर्याप्ति शक्ति भूषणवाचकम् ॥२५९॥ रहस्यापि मिथोऽन्योन्य मधे सामि जुगुप्सिते । वाक्यालङ्कार जिज्ञासा निषेधाऽनुनयाः खलु ॥२६॥ तर्केऽर्थ निश्चये नूनं किं पृच्छा वा जुगुप्सनम् । विस्तारेऽकृतौ चोरी चोररी चोरी, किले ॥२६॥ संभाव्यवार्तयोः, "कस्यात्सखे मर्धनि वारिणि । नाम संभाव्य क्रोधोपगम प्राकाश्य कुत्सने ॥२६२॥ परे च लोके स्वर्गे स्वैर भेदाऽप्रमथयोः पुनर । भेदेऽवधारणे तु स्यात् पापे-ष-त्कुत्सनासु कु ॥२६३॥ (१) 'इति' प्रकरण हेतु प्रकाशादि समाप्ति निदर्शन दृष्टान्त प्रकार अनुकर्ष में। (२) 'तिरस्' तिर्यक् अर्थ में अन्तर्षि में। (३) 'प्रादुस्' नाम प्राकाश्य में । (४) 'अलं' वारण पर्याप्ति शक्ति भूषण निरर्थक में। (५) 'मिथस्' अन्योन्य रहस्य में। (६) 'साम' अर्घ जुगुप्सा में। (9) 'खलु' वाक्यालंकार जिज्ञासा निषेत्र अनुमय (सान्त्वन वीप्सा मान निषेध वाक्य पद के पूर्ति में । (८) 'नूनं' तर्क अर्थ निश्चयमें । (९) 'कि' प्रश्न कुत्सा वितर्क निषेत्र में (१०) 'ऊर' उररी ऊररी ए तीनों विस्तार अङ्गाकार अर्थ में हैं। (११) 'किल' वार्ता संभाव्य अनुनयार्थ अरुचि में । (१२) 'के' सुख शिरस् तोय पादपूरणमें । (१३) 'नाम' संभावना क्रोध अभ्युपगम प्रकाशन कुत्सा विस्मय स्मरण काम विकल्प में। (१४) 'स्वर' परलोक स्वर्ग में । (१५) 'पुनर' अप्रथम अधिकार भेद पक्षान्तर में । (१६) 'तु' पादपूरण भेद समुच्चय अवधारण पक्षान्तर वियोग प्रशंसा विनिग्रह में । (१७) 'कु' पाप ईषत् कुत्सा निवारण में । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016064
Book TitleShivkosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherKarunashankar Veniram Pandya
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size13 MB
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