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तृतीयकाण्डम् ३२८
नानार्थवर्गः ३ गुहा दम्भौ, सिते पीतेऽरुणे गौरोऽथ शार्वरम् ॥१८६ । घातुकेऽप्यन्धतमसे वज्रस्तु हीरके पवौ । मुस्तके पिठर" राज कशेरुणि च नागरम् ॥१८७॥ सत्रं वने सदादाने यशाऽऽच्छादनयोः रहः । उपहरं समीपेऽपि द्वारमात्रेऽपि गोपुरम् । १८८॥ मन्दिरं नगरेऽगारे पुरं च हल कोडयोः । मुख ग्रे पोत्र मौशीरं दण्ड स्वापाऽऽसनादिषु ॥१८९॥
(१) 'गहर' गुहा दम्भ निकुञ्ज गहन में पु० नपुं० । (२) 'गौर सित (विशुद्ध) पीत अरुण में त्रि. श्वेत सर्षप चन्द्र में पु०, 'गौरी' असंजातरजाः कन्या में शंकरभार्या, रोचनी रजनी पिङ्गा प्रियङ्गु वसुधा नदीविशेष सिन्धु पत्नी में स्त्री० । (३) शार्वर, घातुक अन्धतमस में त्रि० । (४) 'वज्र हीरक' पवि, त्रपु, वस्त्र में पु०, नपुं० बाधक धात्री में नपुं० । योगान्तर में पु०, 'वज्रा' स्नुही गुड्चो में स्त्री०, 'वज्री' स्नुहयन्तर में स्त्री० । (५) 'पिठर' मुस्ता मन्थानदण्ड में नपुं०, स्थाली में पु० । (६) 'नागर' कशेरू (पोठ की अस्तिओर घास) मुस्तक शुण्ढ। विदग्ध नगरोद्भव में त्रि० । (७) 'सत्र' वन सदादन यज्ञ आच्छादन कैतव में नपुं० । (८) 'उपह्वर' एकान्त समीप में नपुं० । (९) 'पोपुर' द्वार पर (कैवर्ती मुस्तक) में नपुं० । (१०) 'मन्दिर' नगर अगार में नपुं०, मकरालय समुद्र में पु० ।(११) 'पुर' शरोरगृहोपरगृह में नपुं०, गुग्गुल में पु०, नगर में नपुं०, 'पुरी' स्त्री० । (१२) पोत्र' हलमुखाग्र सुकरमुखाग्र (वस्त्रमुखाग्र) में नपुं० । (१३) 'औशीर दण्ड चामर शयन आसन में नपुं० ।
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