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________________ वारिषेण मुनिको कथा ७३ लज्जित हुआ । उसे अपनी मूर्खतापर बहुत खेद हुआ। वह मुनिके चरणोंको नमस्कार कर बोला-प्रभो, आप धन्य हैं, आपने लोभरूपी पिशाचको नष्ट कर दिया है, आप हीने जिनधर्मका सच्चा सार समझा है । संसारमें वे ही बड़े पुरुष हैं, महात्मा हैं, जो आपके समान संसारकी सब सम्पत्तिको लात मारकर वैरागी बनते हैं। उन महात्माओंके लिए फिर कौन वस्तु संसारमें दुर्लभ रह जाती है ? दयासागर, मैं तो सचमुच जन्मान्ध हूँ, इसीलिये तो मौलिक तपरत्नको प्राप्त कर भी अपनी स्त्रीको चित्तसे अलग नहीं कर सका। प्रभो, जहाँ आपने बारह वर्ष पर्यन्त खूब तपश्चर्या की वहाँ मुझ पापीने इतने दिन व्यर्थ गँवा दिये-सिवा आत्माको कष्ट पहुँचानेके कुछ नहीं किया। स्वामी, मैं बहुत अपराधी हूँ, इसलिये दया करके मुझे अपने पापका प्रायश्चित्त देकर पवित्र कीजिये । पुष्पडालके भावोंका परिवर्तन और कृतकर्मके पश्चात्तापसे उनके परिणामोंकी कोमलता तथा पवित्रता देखकर वारिषेण मुनिराज बोले-धीर, इतने दुखी न बनिये। पापकर्मोंके उदयसे कभी-कभी अच्छे-अच्छे विद्वान् भी हतबुद्धि हो जाते हैं। इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं । यही अच्छा हुआ जो तुम पीछे अपने मार्गपर आ गये। इसके बाद उन्होंने पुष्पडाल मुनिको उचित प्रायश्चित्त देकर पीछा धर्ममें स्थिर किया, अज्ञानके कारण सम्यग्दर्शनसे विचलित देखकर उनका धर्ममें स्थितिकरण किया। पुष्पडाल मुनि गुरु महाराजकी कृपासे अपने हृदयको शुद्ध बनाकर बड़े वैराग्यभावोंसे कठिन-कठिन तपश्चर्या करने लगे, भूख प्यासको कुछ परवा न कर परीषह सहने लगे। इसी प्रकार अज्ञान वा मोहसे कोई धर्मात्मा पुरुष धर्मरूपी पर्वतसे गिरता हो, तो उसे सहारा देकर न गिरने देना चाहिये। जो धर्मज्ञ पुरुष इस पवित्र स्थितिकरण अंगका पालन करते हैं, समझो कि वे स्वर्ग और . मोक्ष सुखके देनेवाले धर्मरूपी वृक्षको सोंचते हैं। शरीर, सम्पत्ति, कुटुम्ब आदि अस्थिर हैं, विनाशीक हैं, इनको रक्षा भी जब कभी-कभी सुख देनेवाली हो जाती है तब अनन्तसुख देनेवाले धर्मकी रक्षाका कितना महत्त्व होगा, यह सहजमें जाना जा सकता है। इसलिये धर्मात्माओंको उचित है कि वे दुःख देनेवाले प्रमादको छोड़कर संसार-समुद्रसे पार करनेवाले पवित्र धर्मका सेवन करें। श्रीवारिषेण मुनि, जो कि सदा जिनभगवान्की भक्तिमें लीन रहते हैं, तप पर्वतसे गिरते हुए पुष्पडाल मुनिको हाथका सहारा देकर तपश्चर्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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