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________________ ४२४ आराधना कथाकोश सुन्दरतामें अपनी तुलनामें किसीको न देखते थे। देशके सब लोग खूब सुखी थे, भाग्यशाली थे और पुण्यवान् थे । मालवेके सब शहरोंमें, पर्वतोंमें और सब वनोंमें बड़े-बड़े ऊँचे विशाल और भव्य जिनमन्दिर बने हुए थे। उनके ऊँचे शिखरोंमें लगे हए सोनेके चमकते कलश बड़े सुन्दर जान पड़ते थे । रातमें तो उनको शोभा बड़ो हो विलक्षणता धारण करती थी। वे ऐसे जान पड़ते थे मानों स्वर्गोंके महलोंमें दीये जगमगा रहे हों। हवाके झकोरोसे इधर-उधर फड़क रहो उन मन्दिरों परको ध्वजाएँ ऐसो देख पड़ती थीं मानों वे पथिकोंको हाथोंके इशारेसे स्वर्ग जानेका रास्ता • बतला रही हैं। उन पवित्र जिन मन्दिरोंके दर्शन मात्रसे पापोंका नाश होता था तब उनके सम्बन्ध में और अधिक क्या लिखें। जिनमें बैठे हुए रत्नत्रय धारी साधु-तपस्वियोंको उपदेश करते हुए देखकर यह कल्पना होती थी कि मानों वे मोक्षके रास्ते हैं । ____ मालवे में जिन भगवान्के पवित्र और सुख देनेवाले धर्मका अच्छा प्रचार है । सम्यक्त्वकी जगह-जगह चर्चा है । अनेक सम्यक्त्वरत्नके धारण करनेवाले भव्य जनोंसे वह युक्त है। दान-व्रत, पूजा-प्रभावता आदि वहाँ खूब हुआ करते हैं। वहाँके भव्यजनोंका निभ्रान्त विश्वास है कि अठारह दोष रहित जिन भगवान् ही सच्चे देव हैं। वे ही केवलज्ञानो-सर्वज्ञ हैं । उनकी स्वर्गके देव तक सेवा-पूजा करते हैं। सच्चा धर्म दसलक्षण मय है और उनके प्रकटकर्ता जिनदेव हैं। गुरु परिग्रह रहित और वीतरागी हैं। तत्त्व वही सच्चा है जिसे जिन भगवान्ने उपदेश किया है। वहाँके भव्यजन अपने नित्य-नैमित्तिक कर्मों में सदा प्रयत्नवान रहते हैं। वे भगवान्को स्वर्ग-मोक्षका सुख देनेवाली पूजा सदा करते हैं, पात्रोंको भक्तिसे पवित्र दान देते हैं, व्रत, उपवास, शील, संयमको पालते हैं और आयुके अन्त में सुख-शान्तिसे मृत्यु लाभ कर सद्गति प्राप्त करते हैं। इस प्रकार मालवा उस समय धर्मका एक प्रधान केन्द्र बन रहा था, जिस समयको कि यह कथा है। मालवे में तब एक घटगाँव नामका सम्पत्तिशाली शहर था। इस शहरमें देविल नामका एक धनी कुम्हार और एक मिल नामका नाई रहता था। इन दोनोंने मिलकर बाहरके आनेवाले यात्रियोंको ठहरनेके लिए एक धर्मशाला बनवा दो। एक दिन देविलने एक मुनिको लाकर इस धर्मशाला में ठहरा दिया। मिलको जब मालूम हुआ तो उसने मुनिको हाथ पकड़ कर बाहर निकाल दिया और वहाँ एक संन्यासोको लाकर ठहरा दिया। सच है, जो दुष्ट हैं, दुराचारो हैं, पापी हैं, उन्हें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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