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________________ दूसरोंके गुण ग्रहण करनेको कथा ३५९ होकर अपने घर लौटा। रास्तेमें इसने अपनी प्रेमिणी मदनावलीसे भी ब्याह किया। घर आकर फिर इसने अपनो माताको इच्छा पूरी को । पहले उसोका रथ चला। इसके बाद हरिषेणने अपने देशभरमें जिन मन्दिर बनवा कर अपनी प्रतिज्ञाको भी निबाहा। सच है, पुण्यवानोंके लिये कोई काम कठिन नहीं। वे जिनेन्द्र भगवान् सदा जय लाभ करें, जो देवादिकों द्वारा पूजा किये जाते हैं, गुणरूपी रत्नोंको खान हैं, स्वर्ग-मोक्षके देनेवाले हैं, संसारके प्रकाशित करनेवाले निर्मल चन्द्रमा हैं केवलज्ञानो, सर्वज्ञ हैं और जिनके पवित्र धर्मका पालन कर भव्यजन सुख लाभ करते हैं। ६६. दूसरोंके गुण ग्रहण करनेकी कथा जिन्हें स्वर्गके देव पूजते हैं उन जिन भगवान्को नमस्कार कर दूसरोंके दोषोंको न देखकर गुण ग्रहण करनेवालेको कथा लिखी जाती है। एक दिन सौधर्म स्वर्गका इन्द्र धर्म-प्रेमके वश हो गुणवान् पुरुषोंकी अपनी सभामें प्रशंसा कर रहा था। उस समय उसने कहा-जिस पुरुषका-जिस महात्माका हृदय इतना उदार है कि वह दूसरोंके बहुतसे औगुणों पर बिलकुल ध्यान न देकर उसमें रहनेवाले गुणोंके थोड़े भी हिस्सेको खूब बढ़ानेका यत्न करता है, जिसका ध्यान सिर्फ गुणोंके ग्रहण करनेकी ओर है वह पुरुष, वह महात्मा संसारमें सबसे श्रेष्ठ है, उसीका जन्म भी सफल है। इन्द्र के मुंहसे इस प्रकार दूसरोंकी प्रशंसा सून एक मौजीले देवने उससे पूछा-देवराज, जैसी इस समय आपने गुणग्राहक पुरुषकी प्रशंसा की है, क्या ऐसा कोई बड़भागी पृथ्वी पर है भी। इन्द्रने उत्तरमें कहा-हाँ हैं, और वे अन्तिम वासुदेव द्वारकाके स्वामी श्रीकृष्ण । सुनकर वह देव उसी समय पृथ्वी पर आया । इस समय श्रीकृष्ण नेमिनाथ भगवान्के दर्शनार्थ जा रहे थे। इनको परीक्षाके लिये यह मरे कुत्तेका रूप ले रास्तेमें पड़ गया। इसके शरीरसे बड़ी ही दुर्गन्ध भभक रही थी। आने-जाने वालोंके लिए इधर होकर आना-जाना मुश्किल हो गया था। इसकी इस असह दुर्गन्धके मारे श्रीकृष्णके साथी सब भाग खड़े हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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