SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५६ आराधना कथाकाश हरिषेण इतनेमें भोजन करनेको आया। उसने सदाको भाँति आज अपनो माताको हँस-मुख न देखकर उदास मन देखा । इससे उसे बड़ा खेद हुआ । माता क्यों दुखी हैं, इसका कारण जब उसे जान पड़ा तब वह एक पलभर भी फिर वहाँ न ठहर कर घरसे निकल पड़ा। यहाँसे चलकर वह एक चोरोंके गांवमें पहुंचा। इसे देखकर एक तोता अपने मालिकोंसे बोला-जो कि चोरोंका सिखाया-पढ़ाया था, देखिये, यह राजकुमार जा रहा है, इसे पकड़ो। तुम्हें लाभ होगा। तोतेके इस कहने पर किसी चोरका ध्यान न गया। इसलिये हरिषेण बिना किसी आफतके आये यहाँसे निकल गया। सच है, दुष्टोंकी संगति पाकर दुष्टता आती ही है । फिर ऐसे जीवोंसे कभी किसीका हित नहीं होता। यहाँसे निकल कर हरिषेण फिर एक शतमन्यु नामके तापसीके आश्रममें पहुंचा। वहाँ भी एक तोता था। परन्तु यह पहले तोते सा दुष्ट न था। इसलिये इसने हरिषेणको देखकर मन में सोचा कि जिसके मह पर तेजस्विता और सुन्दरता होती है उसमें गुण अवश्य ही होते हैं। यह जानेवाला भी कोई ऐसा ही पुरुष होना चाहिये। इसके बाद ही उसने अपने मालिक तापसियोंसे कहा-वह राजकुमार जा रहा है। इसका आप लोग आदर करें। राजकुमारको बड़ा अचम्भा हुआ। उसने पहलेका हाल कह कर इस तोतेसे पूछा-क्यों भाई, तेरे एक भाईने तो अपने मालिकोंसे मेरे पकड़नेको कहा था और तू अपने मालिकसे मेरा मान-आदर करनेको कह रहा है, इसका कारण क्या है ? तोता बोला-अच्छा राजकुमार, सुनो मैं तुम्हें इसका कारण बतलाता हूँ। उस तोतेकी और मेरी माता एक ही है, हम दोनों भाई-भाई हैं। इस हालतमें मुझमें और उसमें विशेषता होनेका कारण यह है कि मैं इन तपस्वियोंके हाथ पड़ा और वह चोरोंके। मैं रोज-रोज इन महात्माओंकी अच्छी-अच्छो बातें सुना करता हैं और वह उन चोरोंकी बुरी-बुरी बातें सुनता है। इसलिये मुझमें और उसमें इतना अन्तर है। सो आपने अपनी आँखों देख ही लिया कि दोष और गुण ये संगतिके फल हैं। अच्छोंकी संगतिसे गुण प्राप्त होते हैं और बुरोंकी संगतिसे दुगुण। इस आश्रमके स्वामी तापसी शतमन्यु पहले चम्पापुरीके राजा थे। इनकी रानीका नाम नागवती है। इनके जनमेजय नामका एक पुत्र और मदनावली नामको एक कन्या है। शतमन्यु अपने पुत्रको राज्य देकर तापसी हो गये। राज्य अब जनमेजय करने लगा। एक दिन जनमेजयसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy