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________________ ३५२ आराधना कथाकोश काल इस संसारमें जय लाभ करे, उठ बैठे। स्वप्नका फल उनके विचारानुसार ठीक निकला । सबेरा होते ही दो मुनियोंने जिनकी कि उन्हें चाह थी, आकर आचार्यके पाँवोंमें बड़ी भक्तिके साथ अपना सिर झुकाया और आचार्यकी स्तुति की। आचार्यने तब उन्हें आशीर्वाद दिया-तुम चिरकाल जीकर महावीर भगवानके पवित्र शासनकी सेवा करो । अज्ञान और विषयोंके दास बने संसारी जीवोंको ज्ञान देकर उन्हें कर्तव्यकी ओर लगाओ। उन्हें सुझाओ कि अपने धर्म और अपने भाइयोंके प्रति जो उनका कर्तव्य है उसे पूरा करें। इसके बाद आचार्यने इन दोनों मुनियोंको दो तीन दिन तक अपने पास रक्खा और उनकी बुद्धि, शक्ति, सहनशीलता, कर्तव्य बुद्धिका परिचय प्राप्त कर दोनोंको दो विद्याएँ सिद्ध करनेको दीं। आचार्यने इनकी परीक्षाके लिये विद्या साधनेके मन्त्रोंके अक्षरोंको कुछ न्यूनाधिक कर दिया था। आचार्यकी आज्ञानुसार ये दोनों इसी गिरनार पर्वतके एक पवित्र और एकान्त भागमें भगवान् नेमिनाथको निर्वाण शिला पर पवित्र मनसे विद्या सिद्ध करनेको बैठे। मंत्र साधनकी अवधि जब पूरी होनेको आई तब दो देवियाँ इनके पास आईं। इन देवियोंमें एक देवी तो आँखोंसे अन्धी थी। और दूसरी के दाँत बड़े और बाहर निकले हुए थे। देवियोंके ऐसे असुन्दर रूप को देखकर इन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । इन्होंने सोचा देवोंका तो ऐसा रूप होता नहीं, फिर यह क्यों ? तब इन्होंने मंत्रोंकी जाँच की, मंत्रों को व्याकरणसे उन्होंने मिलाया कि कहीं उनमें तो गल्ती न रह गई हो? इनका अनुमान सच हुआ। मंत्रोंकी गल्ती इन्हें भास गई। फिर इन्होंने उन्हें शुद्ध कर जपा । अबको बार दो देवियाँ सुन्दर वेष में इन्हें देख पड़ी। गुरुके पास आकर तब इन्होंने अपना सब हाल कहा। धरसेनाचार्य इनका वृत्तान्त सुनकर बड़े प्रसन्न हुए । आचार्यने इन्हें सब तरह योग्य पा फिर खूब शास्त्राभ्यास कराया। आगे चलकर यही दो मुनिराज गुरुसेवाके प्रसादसे जैनधर्मके धुरन्धर विद्वान् बनकर सिद्धान्तके उद्धारकर्ता हुए। जिस प्रकार इन मुनियों ने शास्त्रोंका उद्धार किया उसी प्रकार अन्य धर्मप्रेमियोंको भी शास्त्रोद्धार या शास्त्रप्रचार करना उचित है। श्रीमान् धरसेनाचार्य और जेनसिद्धान्तके समुद्र श्री पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्य मेरी बुद्धिको स्वर्गमोक्षका सुख देनेवाले पवित्र जैनधर्ममें लगावें; जो जीव मात्रका हित करनेवाले और देवों द्वारा पूजा किये जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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