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________________ जयसेन राजाको कथा ३२३ ८१. जयसेन राजाकी कथा स्वर्गादि सुखोंके देनेवाले और मोक्षरूपी रमणीके स्वामी श्रीजिन भगवान्को नमस्कार कर जयसेन राजाकी सुन्दर कथा लिखो जाती है। सास्वतीके राजा जयसेनकी रानी वीरसेनाके एक पुत्र था। इसका नाम वीरसेन था । वीरसेन बुद्धिमान् और सच्चे हृदयका था, मायाचारकपट उसे छू तक न गया था। ___ यहाँ एक शिवगुप्त नामका बुद्ध भिक्षुक रहता था। यह मांसभक्षी और निर्दयी था। ईर्षा और द्वेष इसके रोम-रोममें ठसा था मानों वह इनका पुतला था । यह शिवगुप्त राजगुरु था। ऐसे मिथ्यात्वको धिक्कार है जिसके वश हो ऐसे मायावी और द्वेषी भी गुरु हो जाते हैं। एक दिन यतिवृषभ मुनिराज अपने सारे संघको साथ लिये सावस्तीमें आये। राजा यद्यपि बद्धधर्मका माननेवाला था, तथापि वह और-और लोगोंको मुनिदर्शनके लिये जाते देख आप भी गया । उसने मुनिराज द्वारा धर्मका पवित्र उपदेश चित लगाकर सुना । उपदेश उसे बहुत पसन्द आया। उसने मुनिराजसे प्रार्थना कर श्रावकोंके व्रत लिये। जैनधर्म पर अब उसकी दिनों-दिन श्रद्धा बढ़ती ही गई। उसने अपने सारे राज्यभरमें कोई ऐसा स्थान न रहने दिया जहाँ जिनमन्दिर न हो । प्रत्येक शहर, प्रत्येक गांवमें इसने जिनमन्दिर बनवा दिया। जिनधर्मके लिये राजाका यह प्रयत्न देख शिवगुप्त ईर्षा और द्वेषके मारे जल कर खाक हो गया। वह अब राजाको किसी प्रकार मार डालनेके प्रयत्नमें लगा। और एक दिन खास इसी कामके लिये वह पृथिवीपुरी गया और वहांके बुद्धधर्मके अनुयायी राजा सुमतिको उसने जयसेनके जैनधर्म धारण करने और जगहजगह जिनमन्दिरोंके बनवाने आदिका सब हाल कह सुनाया। यह सुन . सुमतिने जयसेनको एक पत्र लिखा कि "तुमने बुद्धधर्म छोड़कर जो जैनधर्म जैनधर्म ग्रहण किया, यह बहुत बुरा किया है। तुम्हें उचित है कि तुम पीछा बुद्धधर्म स्वीकार कर लो।" इसके उत्तरमें जयसेनने लिख भेजा कि-"मेरा विश्वास है, निश्चय है कि जैनधर्म ही संसारमें एक ऐसा सर्वोच्च धर्म है जो जीवमात्रका हित करनेवाला है। जिस धर्ममें जीवोंका मांस खाया जाता है या जिनमें धर्मके नाम पर हिंसा वगैरह महापाप बड़ो खुशीके साथ किये जाते हैं वे धर्म नहीं हो सकते । धर्मका अर्थ है जो संसारके दुःखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुखमें रक्खे, सो यह बात सिवा जैनधर्मके और धर्मों में नहीं है। इसलिए इसे छोड़कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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