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________________ शुभ राजाको कथा ३१७ मुनिका शुभके सम्बन्धका भविष्य-कथन सच होने लगा । एक दिन बाहरसे लौट कर जब वे शहरमें घुसने लगे तब घोड़ेके पाँवोंको ठोकरसे उड़े हए थोडेसे विष्टाका अंश उनके मुंहमें आ गिरा और यहाँसे वे थोड़े ही आगे बढ़े होंगे कि एक जोरको आँधीने उनके छत्रको तोड़ डाला । सच है, पापकर्मोंके उदयसे क्या नहीं होता । उन्होंने तब अपने पुत्र देवरतिको बुलाकर कहा-बेटा, मेरे कोई ऐसा पापकर्मका उदय आवेगा उससे मैं मरकर अपने पाखाने में पांच रंगका कीड़ा होऊँगा, सो तुम उस समय मुझे मार डालना । इसलिए कि फिर मैं कोई अच्छी गति प्राप्त कर सके। उक्त घटनाको देखकर शुभको यद्यपि यह एक तरह निश्चय-सा हो गया था कि मुनिराजकी कही बातें सच्ची हैं और वे अवश्य होंगी पर तब भी उनके मन में कुछ-कुछ सन्देह बना रहा और इसी कारण बिजली गिरनेके भयसे डरकर उन्होंने एक लोहेको बड़ो मजबूत सन्दूक मँगवाई और उसमें बैठकर गंगाके गहरे जलमें उसे रख आनेको नौकरोंको आज्ञा की। इसलिए कि जलमें बिजलीका असर नहीं होता। उन्हें आशा थी कि मैं इस उपायसे रक्षा पा जाऊंगा। पर उनकी यह बे-समझी थी। कारण प्रत्यक्षज्ञानियोंकी कोई बात कभी झठी नहीं होती। जो हो, सातवाँ दिन आया। आकाशमें बिजलियाँ चमकने लगीं। इसी समय भाग्यसे एक बड़े मच्छने राजाकी उस सन्दुकको एक ऐसा जोरका उथेला दिया कि सन्दूक जल बाहर दो हाथ ऊँचे तक.उछल आई । सन्दुकका बाहर होना था कि इतने. में बड़े जोरसे कड़क कर उस पर बिजली आ गिरी। खेद है कि उस बिजलीके गिरनेसे राजा अपने यत्नमें कामयाब न हुए और आखिर वे मौतक मुंहमें पड़ ही गये। मरकर वह मुनिराजके कहे अनुसार पाखाने में क्रीड़ा हुए । पिताके कहे माफिक जब देवरतिने जाकर देखा तो सचमुच एक पाँच रंगका कोड़ा उसे देख पड़ा और तब उसने उसे मार डालना चाहा। पर जैसे ही देवरतिने हाथका हथियार उसके मारनेको उठाया, वह कीड़ा उस विष्टाके ढेर में घुस गया। देवरतिको इससे बड़ा ही अचम्भा हआ। उसने जिन-जिनसे इस घटनाका हाल कहा, उन सबको संसारकी इस भयंकर लीलाको सुन बड़ा डर मालम हुआ। उन्होंने तब संसारका बन्धन काट देनेके लिए जैनधर्मका आश्रय लिया, कितनोंने सब माया-ममता तोड़ जिनदीक्षा ग्रहण की और कितनोंने अभ्यास बढ़ानेको पहले श्रावकोंके व्रत ही लिये। देवरतिको इन घटनासे बड़ा अचम्भा हो ही रहा था, सो एक दिन उसने ज्ञानी मुनिराजसे इसका कारण पूछा-भगवन्, क्यों तो मेरे पिताने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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