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________________ ३१५ सुभौम चक्रवर्तीको कथा भेंट किया। चक्रवर्ती उन फलोंको खाकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उस तापससे कहा-महाराज, ये फल तो बड़े ही मीठे हैं। आप इन्हें कहाँसे लाये ? और ये मिलें तो कहाँ मिलेंगे? तब उस व्यन्तरने धोखा देकर चक्रवर्तीसे कहा-समुद्र के बोच में एक छोटा सा टापू है। वहीं मेरा घर है । आप मुझ गरीब पर कृपा कर मेरे घरको पवित्र करें तो मैं आपको बहतसे ऐसे-ऐसे उत्तम और मीठे फल भेंट करूँगा। कारण वहाँ ऐसे फलोंके बहत बगीचे हैं। चक्रवर्ती लोभमें फंसकर व्यन्तरके झांसे में आ गये और उसके साथ चल दिये । जब व्यन्तर इन्हें साथ लिये बीच समुद्र में पहँचा तब अपने सच्चे स्वरूप में आ उससे बड़े गुम्सेसे चक्रवर्तीको कहापापी, जानता है कि मैं तुझे यहाँ क्यों लाया हूँ ? यदि न जानता हो तो सुन-मैं तेरा जयसेन नामका रसोइया था, तब तूने मुझे निर्दयताके साथ जलाकर मार डाला था। अब उसीका बदला लेनेको मैं तुझे यहाँ लाया हूँ। बतला अब कहाँ जायगा ? जैसा किया उसका फल भोगने को तैयार हो जा। तुझसे पापियों की ऐसी गति होनी ही चाहिए । पर सुन, अब भी एक उपाय है, जिससे तू बच सकता है। और वह यह कि यदि तू पानीमें पंच नमस्कार मन्त्र लिखकर उसे अपने पाँवोंसे मिटा दे तो तुझे मैं जीता छोड़ सकता हैं। अपनी जान बचाने के लिए कौन किस कामको नहीं कर डालता ? वह भला है या बुरा इसके विचार करनेकी तो उसे जरूरत ही नहीं रहती। उसे तब पड़ी रहती है अपनी जान की। यही दशा चक्रवर्ती महाशय की हुई। उन्होंने तब नहीं सोच पाया कि इस अनर्थसे मेरी क्या दुर्दशा होगी? उन्होंने उस व्यन्नरके कहे अनुसार झटपट जलमें मंत्र लिख कर पाँवसे उसे मिटा डाला। उनका मन्त्र मिटाना था कि व्यन्तरने उन्हें मारकर समुद्र में फेंक दिया । इसका कारण यह हो सकता है कि मंत्रको पाँवसे न मिटानेके पहले व्यन्तरकी हिम्मत चक्रवर्तीको मारनेकी इसलिए न पड़ी होगी कि जगत्पूज्य जिनेन्द्र भगवान्के । भक्तको वह कैसे मारे, या यह भी संभव था कि उस समय कोई जिनशासनका भक्त अन्य देव उसे इस अन्यायसे रोककर चक्रवर्तीकी रक्षा कर लेता और अब मंत्रको पाँवोंसे मिटा देनेसे चक्रवर्ती जिनधर्मका द्वेषी समझा गया और इसीलिए व्यन्तरने उसे मार डाला। मरकर इस पापके फलसे चक्रवर्ती सातवें नरक गया। उस मूर्खताको, उस लम्पटताको धिक्कार है जिससे चक्रवर्ती सारी पृथिवोका सम्राट् दुर्गतिमें गया। जिसका जिन भगवान्के धर्म पर विश्वास नहीं होता उसे चक्रवर्तीकी तरह कुगतिमें जाना पड़े तो इसमें आश्चर्य क्या ? वे पुरुष धन्य हैं और वे हो सबके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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