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________________ ३१४ आराधना कथाकोश भावों द्वारा महान् पापका बन्धकर दुर्गतियोंमें जाते हैं और वहाँ अनेक कष्ट सहते हैं। सिक्थ-मच्छकी भी यही दशा हुई। वह इस प्रकार बुरे भावोंसे तीव्र कर्मोका बन्ध कर सातवें नरक गया। क्योंकि मनके भाव ही तो पुण्य या पापके कारण होते हैं । इसलिए सत्पुरुषोंको जैनशास्त्रों के अभ्यास या पढ़ने-पढ़ानेसे मनको सदा पवित्र बनाये रखना चाहिए, जिससे उसमें बुरे विचारोंका प्रवेश ही न हो पाये । और शास्त्रोंके अभ्यासके बिना अच्छे बुरेका ज्ञान नहीं हो पाता, इसलिए शास्त्राभ्यास पवित्रताका प्रधान , कारण है। यहो जिनवाणी मिथ्यात्वरूपी अँधेरेको नष्ट करनेके लिए दीपक है, संसारके दुःखोंको जड़मूलसे उखाड़ फेंकनेवाली है, स्वर्ग मोक्षके सुखकी कारण है और देव, विद्याधर आदि सभी महापुरुषों के आदरकी पात्र है सभी जिनवाणीको उपासना बड़ी भक्तिसे करते हैं। आप लोग भी इस पवित्र जिनवाणीका शांति और सुखके लिए, सदा अभ्यास मनन-चिन्तन करें। ७६. सुभौम चक्रवर्तीकी कथा चारों प्रकारके देवों द्वारा जिनके चरण पूजे जाते हैं उन जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर आठवें चक्रवर्ती सुभौमकी कथा लिखी जाती है । सुभौम ईर्ष्यावान् शहरके राजा कार्तवीर्यको रानी रेवतोके पुत्र थे । चक्रवर्तीका एक जयसेन नामका रसोइया था। एक दिन चक्रवर्ती जब भोजन करनेको बैठे तब रसोइयेने उन्हें गरम-गरम खीर परोस दी। उसके खानेसे चक्रवर्तीका मुंह जल गया। इससे उन्हें रसोइए पर बड़ा गुस्सा आया। गुस्सेसे उन्होंने खीर रखे गरम बरतनको ही उसके सिरपर दे मारा । उससे उसका सारा सिर जल गया। इसकी घोर वेदनासे मरकर वह लवणममुद्र में व्यन्तर देव आ । कू-अवधिज्ञानसे अपने पूर्वभवकी बात जानकर चक्रवर्ती पर उसके गुस्सेका पार न रहा। प्रतिहिंसासे उसका जी बे-चैन हो उठा। तब वह एक तापसी बनकर अच्छे-अच्छे सुन्दर फलोंको अपने हाथमें लिये चक्रवर्तीके पास पहुंचा । फलोंको उसने चक्रवर्ती को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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