SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९२ आराधना कथाकोश अपने कर्त्तव्य के लिए बहुत समय है । जिस प्रकार मैंने संसारमें रहकर विषय सुख भोगा, शरीर और इन्द्रियों को खूब सन्तुष्ट किया, उसी तरह अब मुझे अपने आत्महित के लिए कड़ीसे कड़ी तपस्या कर अनादि कालसे पीछा किये हुए इन आत्मशत्रु कर्मोंका नाश करना उचित है, यही मेरे पहले किये कर्मोंका पूर्ण प्रायश्चित्त है, और ऐसा करनेसे ही मैं शिवरमणीके हाथोंका सुख-स्पर्श कर सकूंगा । इस प्रकार स्थिर विचार कर अभयघोषने सब राजभार अपने कुँवर चण्डवेगको सौंप जिन दीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे हटाकर उन्हें आत्मशक्तिके बढ़ानेको सहायक बनाती है । इसके बाद अभयघोष मुनि संसार - समुद्रसे पार करनेवाले और जन्म- जरा मृत्युको नष्ट करनेवाले अपने गुरु महाराजको नमस्कार कर और उनकी आज्ञा ले देश विदेशों में धर्मोपदेशार्थ अकेले ही विहार कर गये । इसके कितने वर्षों ही बाद वे घूमते-फिरते फिर एक बार अपनी राजधानी काकन्दीकी ओर आ निकले । एक दिन ये वीरासनसे तपस्या कर रहे थे । इसी समय इनका पुत्र चण्डवेग इस ओर आ निकला । पाठकों को याद होगा कि चण्डवेगकी और इसके पिता अभयघोषकी शत्रुता है । कारण चण्डवेग पूर्व जन्ममें कछुआ था और उसके पाँव अभय घोषने काट डाले थे । सो चण्डवेगकी जैसे ही इन पर नजर पड़ी उसे अपने पूर्वकी याद आ गई । उसने क्रोधसे अन्धे होकर उनके भी हाथ पाँको काट डाला । सच है धर्महीन अज्ञानी जन कौन पाप नहीं कर डालते । 1 अभयघोष मुनि पर महान् उपसर्ग हुआ, पर वे तब भी मेरुके समान अपने कर्त्तव्य में दृढ़ बने रहे । अपने आत्मध्यानसे वे रत्तीभर भी न चिगे । इस ध्यान बलसे केवलज्ञान प्राप्त कर अन्तमें उन्होंने अक्षयान्त मोक्ष लाभ किया । सच है, आत्मशक्ति बड़ी गहन है, आश्चर्य पैदा करनेवाली है | देखिए कहाँ तो अभयघोष मुनि पर दुःसह कष्टका आना और कहाँ मोक्ष प्राप्तिका कारण दिव्य आत्मध्यान ! सत्पुरुषों द्वारा सेवा किये गये वे अभयघोष मुनि मुझे भी मोक्षका सुख दें, जिन्होंने दुःसह परीषहको जीता, आत्मशत्रु राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदिको नष्ट किया और जन्म-जन्म में दारुण दुःखोंके देनेवाले कर्मों का क्षय कर मोक्षका सर्वोच्च सुख, जिस सुखकी कोई तुलना नहीं कर सकता, प्राप्त किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy