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________________ सुकुमाल मुनिको कथा I २६१ पापीने उसे रुपया न देकर जानसे मार डाला । इसलिए उस अपराध के बदले अपने राजा साहबने इसे प्राणदंडकी सजा दी है, और वह योग्य है । क्योंकि एकको ऐसो सजा मिलनेसे अब दूसरा कोई ऐसा अपराध न करेगा । तब नागश्रीने जरा जोर देकर कहा- तो पिताजी, यही व्रत तो उन मुनियोंने मुझे दिया है, फिर आप उसे क्यों छुड़ानेको कहते हैं ? सोमशर्मा लाजबाब होकर बोला - अस्तु पुत्री, त इस व्रतको न छोड़, चल बाकीके व्रत तो उनके उन्हें दे आवें । आगे चलकर नागश्रीने एक और पुरुषको बँधा देखकर पूछा- और पिताजी, यह पुरुष क्यों बाँधा गया है ? सोमशर्मा ने कहा – पुत्री, यह झूठ बोलकर लोगोंको ठगा करता था । इसके फन्देमें फँसकर बहुतों को दर-दरका भिखारी बना पड़ा है। इसलिए झूठ बोलने के अपराध में इसको यह दशा की जा रही है। तब फिर नागश्रीने कहा- तो पिताजी, यही व्रत तो मैंने भी लिया है। अब तो मैं उसे कभी नहीं छोड़ेंगी । इस प्रकार चोरी, परस्त्री, लोभ आदिसे दुःख पाते हुए मनुष्यों को देखकर नागश्रीने अपने पिता को लाजबाव कर दिया और व्रतों को नहीं छोड़ा | तब सोमशर्माने हार खाकर कहा - अच्छा, यदि तेरी इच्छा इन व्रतोंको छोड़नेकी नहीं है तो न छोड़, पर तू मेरे साथ उन मुनियों के पास तो चल । में उन्हें दो बातें कहूँगा कि तुम्हें क्या अधिकार था जो तुमने मेरी लड़कीको बिना मेरे पूछे व्रत दे दिये ? फिर वे आगेसे किसी को इस प्रकार व्रत न दे सकेंगे। सच है, दुर्जनों को कभी सत्पुरुषोंसे प्रीति नहीं होती । तब ब्राह्मण देवता अपनी होंश निकालनेको मुनियोंके पास चले । उसने उन्हें दूरसे ही देखकर गुस्से में आ कहा- क्योंरे नंगेओं ! तुमने मेरी लड़कोको व्रत देकर क्यों ठग लिया ? बतलाओ, तुम्हें इसका क्या अधिकार था ? कवि कहता है कि ऐसे पापियोंके विचारोंको सुनकर बड़ा ही खेद होता है । भला, जो व्रत, शील, पुण्यके कारण हैं, उनसे क्या कोई ठगाया जा सकता है ? नहीं । सोमशर्माको इस प्रकार गुस्सा हुआ देखकर सूर्यमित्र मुनि बड़ी धीरता और शान्तिके साथ बोले- भाई, जरा धीरज धर, क्यों इतनी जल्दी कर रहा है । मैंने इसे व्रत दिये हैं, पर अपनी लड़की समझकर और सच पूछो तो यह है भी मेरी ही लड़की । तेरा तो इस पर कुछ भी अधिकार नहीं है । तू भले ही यह कह कि यह मेरी लड़की है, पर वास्तव में यह तेरी लड़की नहीं है । यह कहकर सूर्यमित्र मुनिने नागश्रोको पुकारा । नागश्री झटसे आकर उनके पास बैठ गई। अब तो ब्राह्मण देवता बड़े घबराये । वे 'अन्याय' 'अन्याय' चिल्लाते हुए राजाके पास पहुँचे और हाथ जोड़कर बोले- देव, नंगे साधुओंने मेरी I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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