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________________ मृगध्वजको कथा २५३ सोमन्धर अयोध्याके राजा थे। उनको रानीका नाम जिनसेना था। इनके एक मृगध्वज नामका पुत्र था। यह माँसका बड़ा लोलुपी था । इसे बिना मांस खाये एक दिन भो चैन न पड़ता था। यहाँ एक राजकीय भैंसा था। वह बुलानेसे पास चला आता, लौट जानेको कहनेसे चला जाता और लोगोंके पाँवोंमें लोटने लगता। एक दिन यह भैंसा एक तालाब में कोड़ा कर रहा था। इतने में राजकुमार मगध्वज, मंत्री और सेठके लड़कोंको साथ लिए यहाँ आया। इस भैंसेके पांवोंको देखकर मगध्वजके मन में न जाने क्या धन समाई सो इसने अपने नौकरसे कहादेखो, आज इस भैंसेका पिछला पाँव काट कर इसका मांस खानेको पकाना । इतना कहकर मृगध्वज चल दिया। नौकर उसके कहे अनुसार भैंसेका पाँव काट कर ले गया। उसका मांस पका । उसे खाकर राजकुमार और उसके साथी बड़े प्रसन्न हुए। इधर बेचारा भैंसा बड़े दुःखके साथ लँगड़ाता हुआ राजाके सामने जाकर गिर पड़ा। राजाने देखा कि उसकी मौत आ लगी है। इसलिए उस समय उसने विशेष पूछ-पाछ न कर, कि किसने उसको ऐसी दशा की है, दयाबुद्धिसे उसे संन्यास देकर नमस्कार मन्त्र सुनाया। सच है, संसारमें बहुतसे ऐसे भी गुणवान् परोपकारी हैं, जो चन्द्रमा, सूर्य, कल्पवृक्ष, पानी आदि उपकारक वस्तुओंसे भो कहीं बढ़कर हैं। भैंसा मरकर नमस्कार मन्त्रके प्रभावसे सौधर्म स्वर्गमें जाकर देव हुआ । सच है, जिनेन्द्र भगवान्का उपदेश किया पवित्र धर्म जीवोंका वास्तवमें हित करनेवाला है। इसके बाद राजाने इस बातका पता लगाया कि भैंसेकी यह दशा किसने की ! उन्हें जब यह नीच काम अपने और मंत्री तथा सेठके पुत्रोंका जान पड़ा तब तो उनके गुस्सेका कुछ ठिकाना न रहा। उन्होंने उसी समय तोनोंको मरवा डालनेके लिये मंत्रोको आज्ञा की। इस राजाज्ञाकी खबर उन तीनोंको भी लग गई । तब उन्होंने झटपट मुनिदत्त मुनिके पास जाकर उनसे जिन दीक्षा ले ली। इनमें मृगध्वज महामुनि बड़े तपस्वी हुए। उन्होंने कठिन तपस्या कर ध्यानाग्नि द्वारा घातिया कर्मों का नाश किया और केवलज्ञान प्राप्त कर संसार द्वारा वे पूज्य हुए। सच है, जिनधर्मका प्रभाव ही कुछ ऐसा अचिन्त्य है जो महापापोसे पापी भी उसे धारण कर त्रिलोक-पूज्य हो जाता है और ठीक भी है, धर्मसे और उत्तम है हो क्या ? वे मृगध्वज मुनि मुझे और आप भव्य-जनोंको महा मंगलमय मोक्ष For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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