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________________ आराधना कथाकोश अर्थात् - जहाँपर अन्यथानुपपत्ति है, वहाँ हेतुके दूसरे तीन रूप मानने से क्या प्रयोजन है ? तथा जहाँपर अन्यथानुपपत्ति नहीं है, वहाँ हेतुके तीन रूप मानने से भी क्या फल है । भावार्थ-साध्यके अभाव में न मिलनेवालेको हो अन्यथानुपपन्न कहते हैं । इसलिये अन्यथानुपपत्ति हेतुका असाधारण रूप है । किन्तु बौद्ध इसको न मानकर हेतुके १ - पक्षेसत्त्व, २ - सपक्षेसत्त्व, ३ - विपक्षाद्वयावृत्ति ये तीन रूप मानता है, सो ठीक नहीं है। क्योंकि कहीं-कहीं पर त्रैरूप्यके न होनेपर भी अन्यथानुपपत्तिके बलसे हेतु सद्धेतु होता है । और कहीं कहीं पर त्रैरूप्यके होनेपर भी अन्यथानुपपत्ति के न होनेसे हेतु सद्धेतु नहीं होता । जैसे एक मुहूर्तके अनन्तर शकटका उदय होगा, क्योंकि अभी कृत्तिकाका उदय है । यहाँपर पक्षेसत्त्व न होनेपर भी अन्यथानुपपत्तिके बलसे हेतु सद्धेतु है । और 'गर्भस्थ पुत्र श्याम होगा, क्योंकि यह मित्रका पुत्र है । यहाँपर त्रैरूप्यके रहनेपर भी अन्यथानुपपत्तिके न होनेसे हेतु सद्धेतु नहीं होता ।" पात्रकेसरीने जब पद्मावतीको देखा तब ही उनकी श्रद्धा जैनधर्म में खूब दृढ़ हो गई थी, जो कि सुख देनेवाली और संसारके परिवर्तनका नाश करनेवाली है । पश्चात् जब वे प्रातःकाल जिनमन्दिर गये और श्री पार्श्वनाथकी प्रतिमापर उन्हें अनुमान प्रमाणका लक्षण लिखा हुआ मिला तब तो उनके आनन्दका कुछ पार नहीं रहा । उसे देखकर उनका सब सन्देह दूर हो गया । जैसे सूर्योदय होनेपर अन्धकार नष्ट हो जाता है । इसके बाद ब्राह्मण- प्रधान, पुण्यात्मा और जिनधर्मके परम श्रद्धालु पात्र केसरीने बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने हृदयमें निश्चय कर लिया कि भगवान् ही निर्दोष और संसाररूपी समुद्रसे पार करनेवाले देव हो सकते हैं और जिनधर्म ही दोनों लोकमें सुख देनेवाला धर्म हो सकता है । इस प्रकार दर्शनमोहनीकर्मके क्षयोपशमसे उन्हें सम्यक्त्वरूपी परम रत्नकी प्राप्ति हो गई उससे उनका मन बहुत प्रसन्न रहने लगा । अब उन्हें निरन्तर जिनधर्मके तत्त्वोंकी मीमांसाके सिवा कुछ सूझने ही न लगा- वे उनके विचारमें मग्न रहने लगे। उनकी यह हालत देखकर उनसे उन ब्राह्मणोंने पूछा- आज कल हम देखते हैं कि आपने मीमांसा, गोतमन्याय, वेदान्त आदिका पठन-पाठन बिलकुल ही छोड़ दिया है और उनकी जगह जिनधर्मके तत्त्वोंका ही आप विचार किया करते हैं, यह क्यों ? सुनकर पात्रकेसरीने उत्तर दिया- आप लोगोंको अपने वेदोंका ६. इसका विशेष न्यायदीपिका आदि ग्रन्थोंसे जानना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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