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________________ १४५ वसुराजाकी कथा जिसे दुर्गतिमें जाना होता है, वही पुरुष जानकर भी ऐसा झूठ बोलता है। ___ तब दोनोंमें सच्चा कौन है, इसके निर्णयके लिए उन्होंने राजा वसुको मध्यस्थ चुना। उन्होंने परस्परमें प्रतिज्ञा की कि जिसका कहना झूठ हो उसकी जबान काट दी जाय । पर्वतकी माँको जब इस विवादका और परस्परकी प्रतिज्ञाका हाल मालूम हुआ तब उसने पर्वतको बुलाकर बहुत डाँटा और गुस्से में आकर कहा-पापी, तूने यह क्या अनर्थ किया ? क्यों उस श्रुतिका उलटा अर्थ किया? तुझे नहीं मालूम कि तेरा पिता जैनधर्मका पूर्ण श्रद्धानी था और वह 'अजैर्यष्टव्यम्' इसका अर्थ तीन वर्ष के पुराने धानसे होम करनेको कहता था। और स्वयं भी वह पुराने धान हीसे सदा होमादिक किया करता था। स्वस्तिमतीने उसे और भी बहुत फटकारा, पर उसका फल कुछ नहीं निकला। पर्वत अपनी प्रतिज्ञापर दृढ़ बना रहा । पुत्रका इस प्रकार दुराग्रह देखकर वह अधीर हो उठी। एक ओर पुत्रके अन्याय पक्षका समर्थन होकर सत्यकी हत्या होती है और दूसरी ओर पुत्र-प्रेम उसे अपने कर्तव्यसे विचलित करता है। अब वह क्या करे ? पुत्र-प्रेममें फंसकर सत्यको हत्या करे या उसकी रक्षाकर अपना कर्तव्य पालन करे ? वह बड़े संकटमें पड़ी । आखिर दोनों शक्तियोंका युद्ध होकर पुत्र-प्रेमने विजय प्राप्तकर उसे अपने कर्तव्य पथसे गिरा दिया, सत्यकी हत्या करनेको उसे सन्नद्ध किया। वह उसी समय वसुके पास पहुंची और उससे बोली-पुत्र, तुम्हें याद होगा कि मेरा एक वर तुमसे पाना बाकी है। आज उसकी मुझे जरूरत पड़ी है। इसलिए अपनी प्रतिज्ञाका निर्वाहकर मुझे कृतार्थ करो। बात यह है पर्वत और नारदका किसी विषय पर झगड़ा हो गया है। उसके निर्णयके लिए उन्होंने तुम्हें मध्यस्थ चुना है। इसलिये मैं तुम्हें कहनेको आई हूँ कि तुम पर्वतके पक्ष- । का समर्थन करना । सच है__ जो स्वयं पापी होते हैं वे दूसरोंको भी पापी बना डालते हैं। जैसे सर्प स्वयं जहरीला होता है और जिसे काटता है उसे भी विषयुक्त कर देता है । पापियोंका यह स्वभाव ही होता है। राजसभा लगी हुई थी। बड़े-बड़े कर्मचारी यथास्थान बैठे हुए थे। राजा वसु भी एक बहुत सुन्दर रत्न-जड़े सिंहासन पर बैठा हुआ था। इतनेमें पर्वत और नारद अपना न्याय करानेके लिए राजसभामें आये। दोनोंने अपना-अपना कथन सुनाकर अन्तमें किसका कहना सत्य है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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