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________________ आराधना कथाकोश उसे यह नहीं जान पड़ा कि क्या गिरा, पर इतना उसे विश्वास हो गया कि उसके बाणके साथ ही कोई भारी वस्तु गिरी जरूर है । जिधरसे किसी वस्तुके गिरनेकी आवाज उसे सुन पड़ी थी वह उधर हो गया पर तब भी उसे कुछ नहीं देख पड़ा। यह देख उसने उस भागको हाथोंसे टटोलना शुरू किया। हस्तस्पर्शसे उसे एक बहत निर्मल खम्भा, जो कि स्फटिकमणिका बना था, जान पड़ा। वसुराजा उसे गुप्तरीतिसे अपने महल पर ले आया। वसुने उस खम्भेके चार पाये बनवाये और उन्हें अपने न्यायसिंहासनके लगवा दिये। उन पायोंके लगनेसे सिंहासन ऐसा जान पड़ने लगा मानों वह आकाशमें ठहरा हुआ हो। धूर्त वसु अब उसी पर बैठकर राज्यशासन करने लगा। उसने सब जगह यह प्रगट कर दिया कि "राजा वसु बड़ा हो सत्यवादी है, उसकी सत्यताके प्रभावसे उसका न्यायसिंहासन आकाशमें ठहरा हआ है।" इस प्रकार कपटकी आड़में वह सर्वसाधारणके बहुत ही आदरका पात्र हो गया। सच है मायावी पुरुष संसारमें क्या ठगाई नहीं करते ! इधर सम्यग्दष्टि, जिनभक्त क्षीरकदम्ब संसारसे विरक्त होकर तपस्वी हो गया और अपनी शक्तिके अनुसार तपस्या कर अन्तमें समाधिमरण द्वारा उसने स्वर्ग लाभ किया। पिताका उपाध्याय पद अब पर्वतको मिला । पर्वतको जितनी बुद्धि थी, जितना ज्ञान था, उसके अनुकूल वह पिताके विद्यार्थियोंको पढ़ाने लगा। उसी वृत्तिके द्वारा उसका निर्वाह होता था। क्षीरकदम्बके साधु हुए बाद ही नारद भी वहाँसे कहीं अन्यत्र चल दिया। वर्षों तक नारद विदेशोंमें घूमा । घूमते फिरते वह फिर भी एकबार स्वस्तिपुरीकी ओर आ निकला । वह अपने सहाध्यायी और गुरुपुत्र पर्वतसे मिलनेको गया। पर्वत उस समय अपने शिष्योंको पढ़ा रहा था। साधारण कुशल प्रश्नके बाद नारद वहीं बैठ गया और पर्वतका अध्यापन कार्य देखने लगा। प्रकरण कर्मकाण्डका था। वहाँ एक श्रुति थी-"अज्जैर्यष्टव्यमिति ।" दुराग्रही पापी पर्वतने उसका अर्थ किया कि "अजैश्छागेः प्रयष्टव्यमिति' अर्थात्बकरोंकी बलि देकर होम करना चाहिए। उसमें बाधा देकर नारदने कहा-नहीं, इस श्रुतिका यह अर्थ नहीं है। गुरुजीने तो हमें इसका अर्थ बतलाया था कि “अजैस्त्रिवार्षिकैर्धान्यैः प्रयष्टव्यम्" अर्थात्-तीन वर्षके पुराने धानसे, जिसमें उत्पन्न होनेकी शक्ति न हो, होम करना चाहिए । पापी, तू यह क्या अनर्थ करता है जो उलटा ही अर्थ कर दिया ? उस पर पापी पर्वतने दुराग्रहके वश हो यही कहा कि नहीं, तुम्हारा कहना सर्वथा मिथ्या है। असलमें 'अज' शब्दका अर्थ बकरा ही होता है और उसीसे होम करना चाहिए । ठीक कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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