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________________ १४० आराधना कथाकोश बड़ा ज्ञानी हुआ, दानी हुआ तथा दयालु हुआ । भगवन्, इन सब बातोंको मैं सुनना चाहता हूँ। करुणाके समुद्र और चार ज्ञानके धारी यशोध्वज मुनिराजने, मृगसेन धीवरके अहिंसावत ग्रहण करने, जालमें एक ही एक मच्छके बार-बार आने, घरपर सूने हाथ लौट आने, स्त्रीके नाराज होकर घरमें न आने देने, आदिकी सब कथा गुणपालसे कहकर कहा-वह मृगसेन तो अहिंसाव्रतके प्रभावसे यह धनकोत्ति हआ, जो कि सर्वश्रेष्ठ सम्पत्तिका मालिक और महाभव्य है; और मगसेनकी जो घण्टा नामकी स्त्री थी, वह निदान करके इस जन्ममें भी धनकीतिकी श्रीमती नामकी गुणवती स्त्री हुई है और जो मच्छ पाँच बार पकड़कर छोड़ दिया गया था, वह यह अनंगसेना हुई है, जिसने कि धनकीत्तिको जीवदान देकर अत्यन्त उपकार किया है, सेठ महाशय, यह सब एक अहिंसावतके धारण करनेका फल है। और परम अहिसामयी जिनधर्मके प्रसादसे सज्जनोंको क्या प्राप्त नहीं होता! मुनिराजके द्वारा इस सुखदाई कथाको सुनकर सब ही बहुत प्रसन्न हुए। जिनधर्म पर उनकी गाढ़ श्रद्धा हो गई। अपने पूर्व भवका हाल सुनकर धनकोत्ति, श्रीमती और अनंगसेनाको जातिस्मरण हो गया। उससे उन्हें संसारकी क्षणस्थायी दशापर बड़ा वैराग्य हआ। धर्माधर्मका फल भी उन्हें जान पड़ा । उनमें धनकीत्तिने तो, जिसका कि सुयश सारे संसारमें विस्तृत है, यशोध्वज मुनिराजके पास हो एक दूसरे मोहपाशकी तरह जान पड़नेवाले अपने केशकलापको हाथोंसे उखाड़ कर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि संसारके जीवोंका उद्धार करनेवाली है। साधु हो जानेके बाद धनकोत्तिने खूब निर्दोष तपस्या की, अनेक जीवोंको कल्याणके मार्गपर लगाया, जिनधर्मकी प्रभावना की, पवित्र रत्नत्रय प्राप्त किया और अन्तमें समाधिसहित मरकर सर्वार्थसिद्धिका श्रेष्ठ सुख लाभ किया। धनकीत्ति आगे केवली होकर मुक्ति प्राप्त करेगा। और ऋषियोंने भी अहिंसावतका फल लिखते समय धनकीत्तिकी प्रशंसामें लिखा है-'धनकोत्तिने पूर्व भवमें एक मच्छको पाँच बार छोड़ा था, उसके फलसे वह स्वर्गीयश्रीका स्वामी हुआ।" इसलिए आत्महितको इच्छा करनेवालोंको यह व्रत मन, वचन, कायकी पवित्रतापूर्वक निरन्तर पालते रहना चाहिए। धनकीर्तिको दीक्षित हुआ देखकर श्रीमती और अनंगसेनाने भी हृदयसे विषयवासनोंको दूरकर अपने योग्य जिनदीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि सब दु:खोंकी नाश करनेवाली है । इसके बाद अपनी शक्तिके अनुसार तपस्या कर उन दोनोंने भी मृत्युके अन्तमें स्वर्ग प्राप्त किया। सच है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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