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________________ १३८ आराधना कथाकोश I रखना कि ये जो उजले लड्डू हैं, उन्हें तो अपने स्वामीको परोसना और जो मैले हैं, उन्हें अपने पिताको परोसना । यह कहकर श्रीमतीकी माँ नहानेको चली गई । श्रीमती अपने पिता और पतिको भोजन करानेको बैठी । बेचारी श्रीमती भोलीभाली लड़की थी और न उसे अपनी माताका कूट-कपट ही मालूम था; इसलिए उसने अच्छे लड्डू अपने पिताके लिए ही परोसना उचित समझा, जिससे कि उसके पिताको अपने सामने श्रीमतीका बरताव बुरा न जान पड़े और यही एक कुलीन कन्याके लिए उचित भी था । क्योंकि अपने मातापिता या बड़ोंके सामने ऐसा बेहया का काम अच्छी स्त्रियाँ नहीं करतीं । इसीलिये जो लड्डू उसके पति के लिए उसकी माँने बनाये थे, उन्हें उसने पिताकी थाली में परोस दिया । सच है - " विचित्रा कर्मणां गतिः " अर्थात् कर्मोकी गति विचित्र हुआ करती है । विष मिले हुए लड्डुओं के खाते ही श्रीदत्तने अपने किए कर्मका उपयुक्त प्रायश्चित पा लिया, वह तत्काल मृत्युको प्राप्त हुआ। ठीक ही कहा है कि पाप कर्म करनेवालोंका कभी कल्याण नहीं होता । श्रीमतीकी माँ जब नहाकर लौटी और उसने अपने स्वामीको इस प्रकार मरा पाया तो उसके दुःखका कोई पार नहीं रहा । वह बहुत विलाप करने लगी – परन्तु अब क्या हो सकता था ! जो दूसरोंके लिए कुआँ खोदते हैं, उसमें पहले वे स्वयं ही गिरते हैं, यह संसारका नियम है । श्रीमतीकी माँ और पिता इसके उदाहरण हैं । इसलिए जो अपना बुरा नहीं चाहते उन्हें दूसरोंका बुरा करनेका कभी स्वप्न में भी विचार नहीं करना चाहिए । अन्तमें श्रीमतीकी माताने अपनी पुत्रीसे कहा- हे पुत्री ! तेरे पिताने और मैंने निर्दय होकर अपने हाथों ही अपने कुलका सर्वनाश किया । हमने दूसरेका अनिष्ट करनेके जितने प्रयत्न किए वे सब व्यर्थ गए और अपने नीच कर्मोंका फल भी हमें हाथों हाथ मिल गया । अब जो तेरे पिताजीकी गति हुई, वही मेरे लिए भी इष्ट है । अन्तमें मैं तुझे आशीर्वाद देती हूँ कि तू और तेरे पति इस घरमें सुखशान्ति से रहें जैसे इन्द्र अपनी प्रिया के साथ रहता है । इतना कहकर उसने भी जहरके लड्डुओंको खा लिया । देखते-देखते उसको आत्मा भी शरीरको छोड़कर चली गई । ठीक है - दुर्बुद्धियोंकी ऐसी ही गति हुआ करती है । जो लोग दुष्ट हृदय बनकर दूसरोंका बुरा सोचते हैं, उनका बुरा अपना बुरा कर अन्तमें क्रुगतियोंमें जाकर अनन्त दुःख 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only करते हैं, वे स्वयं उठाते हैं । इस www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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