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________________ १२३ दृढ़सूर्यको कथा हो दूसरोंके प्राण लेनेके यत्नमें रहते हैं और परोपकार करनेवाले सज्जनोंको भी जो दुर्वचन कहते रहते हैं। राजा सुनते ही क्रोधके मारे आग बबूला हो गए। उन्होंने बिना कुछ सोचे विचारे धनदत्तको बाँध ले आनेके लिये अपने नौकरों को भेजा। इसी समय अवधिज्ञान द्वारा यह हाल सौधर्मेन्द्रको, जो कि दृढ़सर्यका जीव था, मालूम हो गया । अपने उपकारीको, कष्टमें फँसा देखकर वह उसी समय उज्जयिनोमें आया और स्वयं ही द्वारपाल बनकर उससे घरके दरवाजेपर पहरा देने लगा। जब राजनौकर धनदत्तको पकड़नेके लिये घरमें घुसने लगे तब देवने उन्हें रोका । पर जब वे हठ करने लगे और जबरन घरमें घुसने ही लगे तब देवने भी अपनी मायासे उन सबको एक क्षणभरमें धराशायी बना दिया । राजाने यह हाल सुनकर और भी बहुतसे अपने अच्छे-अच्छे शूरवीरोंको भेजा, देवने उन्हें भी देखते-देखते पृथ्वीपर लोटा दिया। इससे राजाका क्रोध अत्यन्त बढ़ गया । तब वे स्वयं अपनी सेनाको लेकर धनदत्तपर आ चढ़े। पर उस एक ही देवने उनकी सारी सेनाको तीन तेरह कर दिया। यह देखकर राजा भयके मारे भागने लगे। उन्हें भागते हुए देखकर देवने उनका पीछा किया और वह उनसे बोला-आप कहीं नहीं भाग सकते। आपके जीनेका एक मात्र उपाय है, वह यह कि आप धनदत्तके आश्रय जाँय और उससे अपने प्राणोंकी भीख माँगें। बिना ऐसा किये आपकी कुशल नहीं । सुनकर हो राजा धनदत्तके पास जिनमन्दिर गये और उन्होंने सेठसे प्रार्थना की कि-धनदत्त, मेरो रक्षा करो! मुझे बचाओ ! मैं तुम्हारे शरणमें प्राप्त है। सेठने देवको पीछे ही आया हुआ देखकर कहातुम कौन हो? और क्यों हमारे मह राजको कष्ट दे रहे हो ? देवने अपनी माया समेटी और सेठको प्रणाम करके कहा-हे जिनभक्त सेठ, मैं वही पापी चोरका जीव हूँ, जिसे तुमने नमस्कारमंत्रका उपदेश दिया था। उसीके प्रभावसे मैं सौधर्मस्वर्गमें महद्धिक देव हआ हूँ। मैंने अवधिज्ञान द्वारा जब अपना पूर्वभवका हाल जाना तब मुझे ज्ञात हुआ कि इस समय मेरे उपकारोपर बड़ो आपत्ति आ रही है, इसलिये ऐसे समयमें अपना कर्तव्य पूरा करनेके लिये और आपको रक्षाके लिये मैं आया हूँ। यह सब माया मुझ सेवकको हो की हुई है। इस प्रकार सब हाल सेठसे कहकर और रत्नमय भूषणादिसे उसका यथोचित सत्कार कर देव स्वर्ग में चला गया। जिनभक्त धनदत्तको परोपकारबुद्धि और दूसरोंके दुःख दूर करनेको कर्तव्यपरता देखकर राजा बगैरहने उसका खूब आदर सम्मान किया। सच है-"धार्मिकः कैर्न पूज्यते" अर्थात् धर्मात्माका कौन सत्कार नहीं करता? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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