SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ आराधना कथाकोश प्रेमी दृढ़सर्य आया तब उसने उसे उदास देखकर पूछा-प्रिये, कहो! कहो ! जल्दी कहो !! तुम आज अप्रसन्न कैसी? वसन्तसेनाने उसे अपने लिए इस प्रकार खेदित देखकर कहा-आज मैं उपवनमें गई हुई थी। वहाँ मैंने राजरानीके गले में एक हार देखा है। वह बहुत हो सुन्दर है। उसे आप लाकर दें तब ही मेरा जीवन रह सकता है और तब ही आप मेरे सच्चे प्रेमी हो सकते हैं। दृढ़सूर्य हारके लिये चला। वह सीधा राजमहल पहँचा। भाग्यसे हार उसके हाथ पड़ गया। वह उसे लिये हुए राजमहलसे निकला । सच है लोभी, लपटी कौन काम नहीं करते ? उसे निकलते ही पहरेदारोंने पकड़ लिया । सबेरा होनेपर वह राजसभा में पहुँचाया गया। राजाने उसे शूलीकी आज्ञा दी। वह शूलीपर चढ़ाया गया । इसी समय धनदत्त नामके एक सेठ दर्शन करनेको जिनमन्दिर जा रहे थे । दृढ़सूर्यने उनके चेहरे और चाल-ढालसे उन्हें दयालु समझ कर उनसे कहा-सेठजी, आप बड़े जिनभक्त और दयावान हैं, इसलिए आपसे प्रार्थना है कि मैं इस समय बड़ा प्यासा हूँ, सो आप कहींसे थोड़ासा जल लाकर मुझे पिला दें, तो आपका बड़ा उपकार हो । धनदत्तने उसकी भलाईकी इच्छासे कहा-'भाई, मैं जल तो लाता हूँ, पर इस बीचमें तुम्हें एक बात करनी होगी। वह यह किमैंने कोई बारह वर्षके कठिन परिश्रम द्वारा अपने गुरुमहाराजको कृपासे एक विद्या सीख पाई है, सो मैं तुम्हारे लिए जल लेनेको जाते समय कदाचित् उसे भूल जाऊँ तो उससे मेरा सब श्रम व्यर्थ जायगा और मुझे बहुत हानि भी उठानी पड़ेगो, इसलिए उसे मैं तुम्हें सौंप जाता हूँ। मैं जब जल लेकर आऊँ तब तुम मुझे वह पीछी लौटा देना। यह कहकर परोपकारी धनदत्त स्वर्ग-मोक्षका सुख देनेवाला पंच नमस्कारमंत्र उसे सिखाकर आप जल लेनेको चला गया। वह जल लेकर वापिस लौटा, इतनेमें दृढ़सूर्यकी जान निकल गई, वह मर गया। पर वह मरा नमस्कार मंत्रका ध्यान करता हआ। उसे सेठके इस कहनेपर पूर्ण विश्वास हो गया था कि वह विद्या महाफलके देनेवाली है। नमस्कारमंत्रके प्रभावसे वह सौधर्मस्वर्गमें जाकर देव हुआ। सच है-पंच नमस्कारमंत्रके प्रभावसे मनुष्यको क्या प्राप्त नहीं होता? इसी समय किसी एक दुष्टने राजासे धनदत्तकी शिकायत कर दी कि, महाराज, धनदत्तने चोरके साथ कुछ गुप्त मंत्रणा की है, इसलिये उसके घरमें चोरीका धन होना चाहिये। नहीं तो एक चोरसे बातचीत करनेका उसे मतलब ? ऐसे दुष्टोंको और उनके दुराचारोंको धिक्कार है जो व्यर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy