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________________ उदास-पदेश- सम्यक्त्व इसमें मुनिजन अनशन की आहुति देकर आत्मयज्ञ करते हैं । मपु० ६७.२०२ उवास - लवणसमुद्र की दक्षिण दिशा के पाताल -विवर के समीप स्थित पर्वत । यह शिवदेव नामक देव की निवासभूमि है । हपु० ५.४६१ उदात्त उदात्त, अनुदात्त और स्वरित इन तीनों स्वरों में प्रथम स्वर । यह स्वर ऊँचे से उच्चरित होता है । हपु० १७.८७ उदारधी - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७९ उदित (१) विजय पर्वत के विंग विद्याधर और उसकी भाव श्रीप्रभा का पुत्र । इसने पूर्वजन्म में मुनियों पर आये उपसर्ग से उनकी रक्षा की थी । पपु० ५.३५२-३५३ (२) पदमनी नगरी के राजा विजयपर्वत के दूत अमृतस्वर का प्रथम पुत्र, मुदित का सहोदर । पपु० ३९.८४-८६ दीक्षित अवस्था में वसुभूति के जीब द्वारा किये गये उपसर्ग को इसने सहन किया था । भील ने उपमर्ग काल में इसकी रक्षा की थी। इसने भी पक्षी की पर्याय में भील के प्राण बचाये थे । पपु० ३९. ८४-८६, १२८-१४० उदीच्या संगोत की आठ जातियों में एक जाति । पपु० २४.१२-१५ उदुम्बर - ( १ ) इम नाम का एक रोग (कुष्ट) । मपु० ७१.३२० (२) ये पाँच फल होते हैं। इनका गर्भान्वय को व्रतावरण क्रिया में त्याग होता है । मपु० ३८.१२२ उदुम्बरी - भरतक्षेत्र की एक नदी । भरतेश की सेना इस नदी के तट पर भी ठहरी थी । मपु० २९.५४ उद्गमबोध आहारदान सम्बन्धी सोलह दोष ह० ९.१८७ ३० आहारदान - 'उद्धभाषण - सत्यव्रत की पाँच भावनाओं में एक भावना - प्रशस्तवचन बोलना - आगमानुकूल वचन बोलना । इसे अनुवीचिभाषण भी कहते हैं । पु० ५८.११९ उद्धव - कुरुक्षेत्र में हुए कृष्ण जरासन्ध युद्ध में कृष्ण के पक्ष का राजा । यह अक्षोभ्य का पुत्र था। मपु० ७१.७७, हपु ० ४८.४५ उद्धामा - रावण का व्याघ्ररथासीन योद्धा । पपु० ५७.५१-५२ उद्धारक - लंका का स्वामी राक्षस वंशी राजा । से सहित और विद्या, बल तथा महाकान्ति का यह माया और पराक्रम धारक था । पपु० ५. ३९५-४०० उद्धारपल्य-व्यवहार पल्य के रोमखण्डों में प्रत्येक का असंख्यात करोड़ वर्षो का समय । संख्या से खण्डित करके उनसे गर्त भरने में लगनेवाला समय उद्धारपल्य तथा एक प्रमाण योजन लम्बे-चौड़े और गहरे गर्त ( गड्ढे ) से एक समय में एक रोमखण्ड निकालने पर गर्त के खाली होने में लगनेवाले समय को उद्धारपल्योपम काल कहा गया है । हपु० ७.५० दे० व्यवहारपल्य -उद्धारसागर - दस कोड़ाकोड़ी उद्धारपल्यों का समय । हपु० ७.५१ 'उद्भव -- ( १ ) रावण के पक्ष का एक राक्षस । पपु० १२.१९६ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १४९ Jain Education International जैन पुराणकोश : ६१ उद्भ्रान्त - धर्मा ( रत्नप्रभा) पृथिवी के पंचम प्रस्तार का इन्द्रक बिल । हपु० ४.७६-७७ उदिष्टया यारहवीं प्रतिमा इस प्रतिमा के धारक मुनि अपने निमित्त से बनाये गये आहार को ग्रहण नहीं करते । मपु० १०.१५८० १६१. पपु० ४.९५, वीवच० १८.६९ उन्मत्तजला - ( १ ) मानुषोत्तर पर्वत की ह्रदा आदि बारह नदियों में एक नदी । ये नदियाँ और ताम्रचूल कनकचूल देवों ने मेघरथ को दिखायी थीं । मपु० ६३.२०६ (२) नियम पर्वत से निकलकर सीतोदा नदी की ओर जानेवाली एक नदी । हपु० ५.२४० उन्मग्नजला - विजयार्ध पर्वत की तमिस्रा गुहा में बहनेवाली नदी । यह नदी गुहा के एक कुण्ड से निकलकर सिन्धु नदी में प्रविष्ट होती है । इसके तट पर भरतेश की सेना ने विश्राम किया था । मपु० ३२. २१, हपु० ११.२६ उन्मुख - नवम नारद । इसकी आयु नारायण कृष्ण के बराबर एक हज़ार वर्ष की थी । हपु० ६०.५४८-५५० दे० नारद उन्मुण्ड - कृष्ण के भाई बलदेव का ज्येष्ठ पुत्र । हपु० ४८.६६-६८ उन्मूलनव्रणरोह - एक दिव्य औषधि । इससे घाव शीघ्र भरा जा सकता है । यह औषधि चारुदत्त को एक विद्याधर के संकेत से प्राप्त हुई थी । पु० २१.१८ उपकरणकीडा – चतुविध क्रीडा में दूसरा भेदन्दुक आदि का खेल। पपु० २४.६७-६८ दे० क्रीडा उपक्रम - (१) तत्त्व के प्रकृत अर्थ को श्रोताओं की बुद्धि में बैठा देना, अपरनाम उपोद्घात | इसके पांच भेद है—जानुपूर्वी, नाम, प्रमाण, अभिधेय और अर्थाधिकार । मपु० २.१०२ - १२४ (२) अग्रायणीयपूर्व के चतुर्थ प्राभृत का एक योगद्वार । हपु० १०. ८३ उपगूहन - सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में पाँचवाँ अंग । इससे अज्ञानी और असमर्थ साधर्मी जनों के द्वारा की गयी जैनशासन की निन्दा का आच्छादन होता है । वीवच० ६.६७ उपघात -असमय में मरण । तीर्थंकरों के उपघात नहीं होता । मपु० १५.३१ उपचय-पुस्तक ( शिल्पकार्य) का एक भेद मिट्टी के खिलौने आदि बनाना उपचध पुस्तकर्म है । पपु० २४.३८-३९ उपधित्र - राजा धृतराष्ट्र तथा गान्धारी का पुत्र । पापु० ८. १९५ उपदेश - स्वाध्याय तप का एक भेद । दे० स्वाध्याय उपदेशविधि - शिक्षा की एक विधि। तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि और तत्त्वोपदेश तथा आचार्यों की देशना इसी विधि में आती है । सद्धर्मदेशन ज्ञान की पाँच भावनाओं में एक है । मपु० २१.९६, २३.६९७२, २४.८५-१८० उपदेश- सम्यक्त्व - त्रेसठ शलाका पुरुषों का चरित्र सुनने से उत्पन्न श्रद्धा । यह सम्यग्दर्शन के दस भेदों में तीसरा भेद है । मपु० ७४.४३९४४३, वीवच० १९.१४५ दे० सम्यग्दर्शन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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