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________________ ६० : जैन पुराणकोश उत्पलमती-उवराग्नि उदक-लवणसमुद्र की दक्षिण दिशा के कदम्बुक पातालविवर के समीप का एक पर्वत । शिव नामक देव इस पर्वत का अधिष्ठाता है। हपु० ५.४६१ उदकस्तम्भिनी-जल को स्तंभित करनेवाली एक विद्या । अर्ककीति के पुत्र ___ अमिततेज ने यह विद्या सिद्ध की थी। मपु० ६२.३९१-४०० उदक्कुरु-मेरु पर्वत की उत्तरदिशा में वर्तमान विदेह क्षेत्र का एक भाग । यहाँ उत्तम भोगभूमि की रचना है । मपु० ५.९८ उदधि-(१) हस्तिनापुर के राजा दुर्योधन और उनकी रानी जलधि की कन्या । दुर्योधन ने अपनी इस कन्या के संबंध में निश्चय किया था कि वह यह कन्या कृष्ण के उस पुत्र को देगा जो कृष्ण की रुक्मिणी और सत्यभामा दोनों रानियों के पुत्रों में पहले होगा। प्रद्युम्न पहले हुआ था और सत्यभामा का पुत्र भानु बाद में। पूर्व निश्चयानुसार दुर्योधन अपनी कन्या प्रद्युम्न को देना चाहता था किन्तु धूमकेतु असुर प्रद्युम्न को हर ले गया था अतः दुर्योधन ने परिस्थितिवश अपनी कन्या प्रद्युम्न के छोटे भाई भानु को दे दी थी। धूमकेतु असुर से मुक्त होने पर प्रद्य म्न ने भानु को हराकर इसे अपनी पत्नी बना लिया था। हपु० ४७.८७-९८ (२) कृष्ण का शस्त्र और शास्त्र में निपुण पुत्र । हपु० ४८.७० उदषिकुमार-पाताल लोक के निवासी भवनवासी देवों का एक भेद । हपु० ४.६३ उत्पलमती-विहायस्तिलक नगर के राजा सुलोचन की पुत्री । यह सहस्र- नयन की बहिन और सगर चक्रवर्ती की रानी थी । पपु० ५.७६-८३ उत्पलमाला-पुण्डरीकिणी नगरी की एक गणिका । इसने राजा वसुपाल से शील-रक्षा का वर मांगा था। हपु०४६.३००-३०३ उत्पला-मेरु पर्वत की पूर्व-दक्षिण (आग्नेय) दिशा में स्थित पचास योजन लम्बी, दस योजन गहरी और पच्चीस योजन चौड़ी वापी। हपु० ५. ३३४-३३५ उत्पलिका-बन्धुदत्त की पत्नी मित्रवती की दासी। इसका मरण सर्प- दंश से हुआ था । पपु० ४८.४५-४६ उत्पलोज्ज्वला-मेरु पर्वत की पूर्व-दक्षिण दिशा में स्थित पचास योजन लम्बी, दस योजन गहरी और पच्चीस योजन चौड़ी वापी । हपु० ५. ३३४-३३५ उत्पातिनी-सोलह निकायों में स्थित और अनेक प्रकार की शक्तियों से युक्त विद्याधरों की एक औषधि-विद्या । हपु० २२.६९ उत्पाद-(१) द्रव्य के लक्षण का एक अंश-नवीन पर्याय की उपलब्धि । मपु० २४.११०, हपु० १.१ (२) मुनि को दिया जानेवाला दाता के सोलह उत्पाद दोषों से रहित आहार । हपु० ९.१८७ उत्पादपूर्व-श्रु तज्ञान का प्रथम पूर्व । हपु० २.९७ इसमें एक करोड़ पद है । इन पदों में द्रव्यों के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य गुणों का वर्णन है । हपु० १०.७५ उत्पाविनी-एक विद्या । यह विद्या अर्ककीर्ति के पुत्र अमिततेज ने सिद्ध की थी। मपु० ६२.३९२ उत्सन्नदोष-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव एक नाम । मपु० २५.२११ उत्सर्ग-पांच समितियों में एक समिति । अपर नाम प्रतिष्ठापन समिति। इसमें प्रासुक भूमि पर मल-मूत्र आदि कात्याग किया जाता है । इसका पालन साधु करते हैं । पपु० १४.१०८ हपु० २.१२६, पापु० ९.९५ उत्सर्पिणी-काल का एक भेद । यह दश कोड़ा-कोड़ी समय प्रमाण होता है। इसमें रूप, बल, आयु, शरीर और सुख का उत्कर्षण होता है । इसके छः भेद होते हैं-दुःषमा-दुःषमा, दुःषमा, सुषमा-दुःषमा, दुःषमा-सुषमा, सुषमा और सुरमा सुधमा । मपु० ३.१४-२१ पपु० २०.७७-७८, हपु० ७.५६.५९, वीवच० १८.६५-८६ उत्साह-आत्मा के दस सात्विक गुणों में एक गुण । मपु० १५.२१४ उत्साहशक्ति-मन्त्र, प्रभु और उत्साह इन तीन शक्तियों में एक शक्ति। यह शौर्य से ऊर्जित होती है । मपु० ६८.६१, हपु०८.२०१ उत्सेधांगुल-आठ जो प्रमाण माप । इससे जीवों के शरीर की ऊँचाई और छोटी वस्तुओं का प्रमाण ग्रहण किया जाता है। हपु० ७.३९-४१, उदक-(१) भरत क्षेत्र के भावी चौबीस तीर्थंकरों में आठवें तीर्थंकर। मपु० ७६.४७८, हपु० ६०.५५९ (२) भविष्यत् कालीन तीसरे तीर्थकर का जीव । मपु० ७६.४७१ उदंग-लवणसमुद्र के कौस्तुभ पर्वत का देव । हपु० ५.४६० उवच-ध्रौव्य का शिष्य और शाडिल्य, क्षीरकदम्बक आदि का गुरु भाई । हपु० २३.१३४-१३५ उदधिरक्ष-लंकाधिपति महारक्ष और उनकी रानी विमलाभा का द्वितीय पुत्र । यह अमररक्ष का अनुज और भानुरक्ष का अग्रज था। पपु० ५.२४१-२४४ उदय-(१) अग्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु के २० प्राभतों में कर्म प्रकृति नामक चौथे प्राभूत के चौबीस योगद्वारों में दसवाँ योगद्वार। हपु० १०.८१-८३ दे० अग्रायणीयपूर्व (२) समवसरण के तीसरे कोट के पूर्व द्वार के आठ नामों में एक नाम । हपु० ५७.५६-५७ (३) समवसरण के तीसरे कोट के उत्तर द्वार के आठ नामों में एक नाम । हपु० ५७.६० उवयन-(१) वैशाली के राजा चेटक और उसकी रानी सुभद्रा की पुत्री प्रभावती का पति। यह कच्छ देश के रोरुक नगर का राजा था। मपु० ७५.३-६, ११-१२ (२) मृगावती का पुत्र। मपु० ७५.६४ उदयपर्वत-विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी में स्थित पचास नगरों में एक नगर । हपु० २२.९३-१०१ उदयसुन्दर-नागपुर ( हस्तिनापुर ) के राजा इभवाहन और उसकी पत्नी चूड़ामणि का पुत्र और मनोदया का भाई। यह हंसी में कहे गये वचनों के निर्वाह हेतु दीक्षित हो गया था। पपु० २१.७८-८०, १२३ उबयाचल-पोदनपुर का राजा, अर्हच्छी का पति और हेमरथ का पिता। पपु० ५.३४६ उबराग्नि-क्रोध, काम और उदर इन तीन अग्नियों में तीसरी अग्नि । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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