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________________ अम्भोधि-अरज ३२ : जैन पुराणकोश अम्भोधि-समुद्रविजय के अनुज अक्षोभ्य के पांच पुत्रों में दूसरा पुत्र । उद्धव इसका अग्रज तथा जलधि, वामदेव और दृढव्रत अनुज थे। हपु० ४८.४३-४५ अम्ल-छः रसों में एक रस-खट्टा रस । मपु० ९.४६ अम्लातक-लंका प्रस्थान काल में बजाया गया राम का एक वाद्य । पपु० । ५८.२७-२८ अयन-तीन ऋतुओं से युक्त काल । एक वर्ष में दो अयन होते है। ऋतु का समय दो मास का होता है । हपु० ७.२१-२२ दे० काल अयस्कान्तपुत्रिका-लौह निर्मित पुत्तलिका। मपु० १०.१९३ अयुत-दस हजार वर्ष का काल । हपु० २४.८१ दे० काल अयोगकेवली-चौदहवां गुणस्थान । यहाँ जीव घातियाकर्म का नाश करके योग रहित हो जाता है । हपु० ३.८३ अयोधन-(१) हस्तिनापुर के राजा मत्स्य के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र । हपु० १७.३१ (२) धारणयुग्म नगर का सूर्यवंशी राजा । इस नृप को दिति नामा महारानी थी। सुलसा इसी की पुत्री थी। हपु० २३.४६-४८ अयोध्य-भरत चक्रवर्ती का सेनापति । उनके सात सजीव रत्नों में एक रत्ल । मपु० ३७.८३-८४, १७४, हपु० ११.२३, ३१ अयोध्या-(१) धातकीखण्ड द्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में स्थित गंधिल देश का नगर । जयवर्मा इस नगर का नृप था। मपु० ७.४०-४१, ५९.२७७ (२) जम्बद्वीप में आर्यखण्ड के कोशल देश की नगरी । यह नगरी सरयू नदी के किनारे इन्द्र द्वारा नाभिराय और मरुदेवी के लिए रची गयी थी । सुकोशल देश में स्थित होने से इसे सुकोशल और विनीत लोगों की आवासभूमि होने से विनीता भी कहा गया है। यह अयोध्या इसलिए थी कि इसके सुयोजित निर्माण कौशल के कारण इसे शत्रु नहीं जीत सकते थे । सुन्दर भवनों के निर्माण के कारण इसे साकेत भी कहा जाता था। यह नौ योजन चौड़ी, बारह योजन लम्बी और अड़तीस योजन परिधि की थी। बलभद्र राम यहीं जन्मे थे। मपु० १२.६९-८२, १४.६७-७०, ७१, १६.१५२, २९.४७, ७१.२५५-२५६, पपु० ८१.११६-१२४, हपु० ९.४२, १०.१६३, पापु० २.१०८, वीवच० ४.१२१ (३) जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र की नगरी, राजा श्रीवर्मा की आवासभूमि । मपु० ५९.२८२ । (४) धातकीखण्ड द्वीप के दक्षिण की ओर और इष्वाकार पर्वत से पूर्व की ओर स्थित अलका नामक देश का नगर । इस द्वीप में इस नाम के दो भिन्न-भिन्न नगर थे जिनमें गंधिल देश से संबंधित नगर में जयवर्मा तथा अलका देश से संबंधित नगर में जयवर्मा का पुत्र अतितंजय रहता था । मपु० ७.४०-४१, १२.७६, ५४.८६-८७ (५) विदेहक्षेत्र के गन्धावत्सुगन्धा देश की राजधानी । मपु० ६३.२०८-२१७, हपु० ५.२६३ अयोनिज-(१) भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३४ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १०६ अयोबाहु-राजा धृतराष्ट्र और उनकी रानी गान्धारी के सौ पुत्रों में सैंतीसवाँ पुत्र । पापु० ८.१९७ अर-(१) अवसर्पिणी काल के दुःषमा-सुषमा नामक चतुर्थ काल में उत्पन्न शलाकापुरुष, अठारहवें तीर्थंकर तथा सातवें चक्रवर्ती । ये सोलह स्वप्नपूर्वक फाल्गुन शुक्ला तृतीया के दिन रेवती नक्षत्र में रात्रि के पिछले प्रहर में भरतक्षेत्र में स्थित कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में सोमवंशी, काश्यपगोत्री राजा सुदर्शन की रानी मित्रसेना के गर्भ में आये तथा मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्दशी के दिन पुष्य नक्षत्र में मति, श्रत और अवधिज्ञान सहित जन्मे थे। इनको आयु चौरासी हजार वर्ष थी, शरीर तीस धनुष ऊँचा था और कान्ति स्वर्ण के समान थी । कुमारावस्था के इक्कीस हजार वर्ष बीत जाने पर इन्हें मण्डलेश्वर के योग्य राजपद प्राप्त हुआ था और जब इतना ही काल और बीत गया तब ये चक्रवर्ती हुए। इनकी छियानवें हजार रानियाँ थीं। अठारह कोटि घोड़े, चौरासी लाख हाथी और रथ, निन्यानवें हजार द्रोण,अड़तालीस हजार पत्तन, सोलह हजार खेट, छियानवें कोटि ग्राम आदि इनका अपार वैभव था। शरद-ऋतु के मेघों का अकस्मात् विलय देखकर इन्हें आत्मबोध हुआ। इन्होंने अपने पुत्र अरविन्द को राज्य दे दिया और वैजयन्ती नाम की शिविका में बैठकर ये सहेतुक वन में गये। वहाँ षष्ठोपवास पूर्वक मंगसिर शुक्ला दशमी के दिन रेवती नक्षत्र में संध्या के समय एक हजार राजाओं के साथ ये दीक्षित हए । दीक्षित होते ही इन्हें मनःपर्यज्ञान प्राप्त हुआ। इसके पश्चात् चक्रपुर नगर में आयोजित नृप के यहाँ इन्होंने आहार लिया । सोलह वर्ष छद्मस्थ अवस्था में रहने के बाद दीक्षावन में कार्तिक शुक्ल द्वादशी के दिन रेवती नक्षत्र में सायंकाल के समय आम्र वृक्ष के नीचे ये केवली हए । इनके संघ में कुम्भार्य आदि तीस गणधर, पचास हजार मुनि, साठ हजार आर्यिकाएँ, एक लाख साठ हजार श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं । एक मास की आयु शेष रहने पर ये सम्मेदाचल आये। यहाँ प्रतिमायोग धारण कर एक हजार मुनियों के साथ चैत्र कृष्णा अमावस्या के दिन रेवती नक्षत्र में रात्रि के पूर्वभाग में इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। इन्होंने क्षेमपुर नगर के राजा धनपति की पर्याय में तीर्थकर प्रकृति का बन्ध किया था। इसके बाद ये अहमिन्द्र हुए और वहाँ से चयकर राजा सुदर्शन के पुत्र हुए। मपु० २.१३२१३४, ६५.१४-५०, पपु० ५.२१५, २२३, २०.१४-१२१, हपु० १.२०, ४५.२२, ६०.१५४-१९०, ३४१-३४९, ५०७, पापु० ७.२३५, बीवच० १८.१०१-१०९ (२) भविष्यत् काल के बारहवें तीर्थकर । मपु० ७६.४७९, हपु० ६०.५६० अरज-(१) भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३० (२) धृतराष्ट्र और गान्धारी के सौ पुत्रों में सौवाँ पुत्र । पापु०८.२०५ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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