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________________ हम्यं हिंसा हर्म्य - राजमहल । ये ऊंचे होते थे। इनके अग्रभाग दूर तक प्रकाश पहुँचाने के लिए अतिशय चमकीले मणियों को ऊँचे भाग पर रखने के उपयोग में आते थे । मपु० १२.१८४ हर्ष - अनागत तोसरा रुद्र । हपु० ६०.५७१-५७२ हल - ( १ ) राम का सामन्त । पपु० ५८.१०-११ (२) देवोपुनीत अस्त्र । महालोचन देव ने यह अस्त्र राम को दिया था । पपु० ६०.१४० हलधर (१) तीर्थङ्कर वृक्षभदेव के सम गणधर हृ० १२.५८ (२) बलभद्र - बलराम । हपु० २५.३५ हवि भरतेश और सौधर्मेद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। पु० २४.४१, २५.१२७ हविभुं क - भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४१ हव्य - भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४१ हस्त --- (१) क्षेत्र का प्रमाण एक हाथ। यह दो बराबर लम्बा होता है । हृपु० ७.४५ बीता वितस्तियों के (२) रावण का एक योद्धा । इसे नल ने युद्ध में रथ रहित करके विह्वल कर दिया था । पु० ५५.४-५, ५८.४५ हस्तचित्रा तो अभिनन्दननाथ की शिविका ० ५०.५१-५२ हस्तप्रहेलिका- चौरासी लाख शिरःप्रकम्पित प्रमित काल । मपु० ३. २२६, हपु० ७.३० हस्तवप्र - भरतक्षेत्र के दक्षिण-मथुरा का एक नगर कृष्ण और बलदेव यहाँ आये थे । यहाँ का राजा अच्छन्त था । हपु० ६२.३-१२ हस्तशीर्षपुर - भरतक्षेत्र का एक नगर । यहाँ का राजा हरिषेण था । मपु० ७१.४४४, दे० हरिषेण- ३ हस्तिन - भरतक्षेत्र के विजयार्धं पर्वत की उत्तरश्र ेणी का अठारहवाँ नगर । हपु० २२.८७ हस्तिनापुर एक नगर यह भरतक्षेत्र के कुरजांगल देश की राजधानी था । श्रेयांस इसी नगरी के राजा थे। आदि तीर्थंकर वृषभदेव एक वर्ष निराहार रहने के पश्चात् अपनी प्रथम चर्या के लिए इसी नगर में आये और श्रेयांसकुमार ने इसी नगर में उन्हें विधिपूर्वक आहार दिया था। मुनि विष्णुकुमार ने बलि द्वारा किये गये उपसर्ग से अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियों की यहाँ रक्षा की थी। राजा पद्मरथ और मुनि विष्णुकुमार इसी नगर के राजकुमार थे। चक्रवर्ती एवं तीर्थङ्कर शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ, चक्रवर्ती सुभौम और सनत्कुमार तथा परशुराम इसी नगर में जन्मे थे । शंख इस नगर का धनिक श्रेष्ठी था । कौरवों की यह नगर राजधानी थी । युद्ध जो महाभारत नाम से प्रसिद्ध है, इसी नगर के विभाजन के लिए हुआ था नागपुर, हस्तिनागपुर और मजपुर इसके अपर नाम थे । मपु० २०.२९ ३१, ४३, ८१, ४३.७४-७७, ६३.३४२, ३६३, ४०६, ४५५-४५७, ६४.१२-१३, २४, २८, ६५.१४-१५, २५, ३०, ५१, ७१.२६०-२६१, पपु० २०.५२-५४ हपु० ३३.२४१, ४५.३९-४१, पापु० २.१८३-१८५, ७.६८, १०.१७ ६१ Jain Education International जैन पुरागकोश: ४८t हतिनायक - विजयाधं पर्वत की उत्तरश्रणो का इक्कीसव नगर । हपु० २२.८७ हस्तिपानी भरतक्षेत्र के आखण्ड की एक नदी विग्विजय के समय चक्रवर्ती भरतेश की सेना यहाँ आयी थी । मपु० २९.६४-६६ हस्तिविजय-विजयाचं पर्वत की उत्तरगी का एक नगर ह २२.८९ - हस्तिसेना – इन्द्र को सेना के सात कक्षों में प्रथम कक्ष । इसमें बीस हजार हाथी होते थे। आगे के कक्षों में इनकी संख्या दूनी दूनी होती है । मपु० १० १९८-१९९ दे० सेना हा - प्रथम पाँच कुलकरों के समय की एक दण्ड व्यवस्था । इसमें अपराधियों को "खेद है कि तुमने ऐसा अपराध किया" दण्ड स्वरूप ऐसा कहा जाता था । मपु० ३.२१४ हाटकति - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. २०० हाय---क्षेत्र का प्रमाण । मपु० ५.२७८ दे० हस्त-१ हार - एक सौ आठ मुक्ता लड़ियों से निर्मित कण्ठ का आभूषण । मपु० ३.१५६, ६.३५, ११.४४, १६.५८, हपु० ७.८९ हारयष्टि स्थल पर धारण किया जानेवाला भौतिक-हार लड़ियाँ की संख्या के अनुसार इसके ग्यारह भेद होते हैं। वे न्य विजयच्छन्द, हार, देवच्छन्द अर्थहार, रश्मिकलाप गुच्छ, नक्षत्रमाला, अर्धगुच्छ, माणव और अर्धमाणव । मपु० ७.२३१, १४.२१३, १५.१५, १६.५२-६१ हारिद्र - सौधर्म और ऐशान स्वर्गो के इकतोस पटलों में बाईसवाँ पटल । हपु० ६.४६ दे० सौधर्म हारो - ( १ ) रावण को प्राप्त विद्याओं में एक विद्या । हपु० २२.६३ (२) इन्द्र का आज्ञाकारी एक देव । देवकी के युगल रूप में उत्पन्न हुए पुत्रों को सुदृष्टि सेठ की पत्नी अलका के पास यही ले गया था । हपु० ३३.१६७-१६९ हालाहल - रावण का एक व्याघ्रवाही सामन्त । पपु० ५७.५१-५२ हास्यत्याग - सत्यव्रत की पाँच भावनाओं में एक भावना- हास्य का परित्याग करना । मपु० १०.१६२ हास्तिविजय - विजया की उत्तरश्रेणीका चौतोसवाँ नगर । हपु० २२.८९ हाहांग — काल का एक प्रमाण । यह अमित काल में चौरासी से गुणित होने पर प्राप्त संख्या के बराबर समय का होता है । मपु० ३.२२५ हाहा - (१) काल का प्रमाण । यह हाहांग प्रमित काल में चौरासी लाख से गुणित होने पर प्राप्त संख्या के बराबर समय का होता है । म० २.२२५ (२) व्यन्तर देवों की एक जाति । पपु० १७.२९७, २१.२७ हपु १९.१४० हिगुलक मध्यलोक के अन्तिम सोलह द्वीप और सागरों में छठा द्वीप एवं छठा सागर । हपु० ५.६२३ हिसा पाँच पापों में प्रथम पापप्राणियों के प्राणों का प्रभावी होकर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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