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________________ स्वयंभूरमण-स्वर्णचूल ने इन्हें मारने के लिए चक्र चलाया था किन्तु चक्र प्रदक्षिणा देकर इनकी दाहिनी भुजा पर आकर ठहर गया था। इन्होंने इसी चक्र से मधु को मारकर उसका राज्य प्राप्त किया था। जीवन के अन्त में मधु और यह दोनों मरकर सातवें नरक गये । इन्होंने कण्ठ तक कोटिशिला उठाई थी। इनकी कुल आयु साठ लाख वर्ष की थी । इसमें इन्होंने बारह हजार पाँच सौ वर्ष कुमार अवस्था में, इतने ही मण्डलीक अवस्था में, नब्बे वर्ष दिग्विजय में और उनसठ लाख चौहत्तर हजार नौ सौ दस वर्ष राज्य अवस्था में बिताये थे । ये दूसरे पूर्वभव में भारतवर्ष के कुणाल देश की श्रावस्ती नगरी के सुकेतु नामक राजा थे। जुआ में सब कुछ हार जाने से इस पर्याय में इन्होंने जिनदीक्षा ले ली थी और कठिन तपश्चरण किया था। अन्त समाधिमरणपूर्वक देह त्याग करके प्रथम पूर्वभव में ये लान्तव स्वर्ग में देव हुए । मपु० ५९.६३-१००, हपु० ५३.३६, ६०.२८८, ५२१५२२. वीवच० १८.१०१, ११२ (५) तीर्थङ्कर वासुपूज्य का मुख्यकर्त्ता । मपु० ७६.५३० (६) रावण का एक सामन्त । इसने राम के पक्षधर दुर्गति नामक योद्धा के साथ युद्ध किया था। पपु० ५७.४५, ६२.३५ (७) जम्बूद्वीप से पश्चिम विदेहक्षेत्र के एक तीर्थदूर मुनि वीतशोका नगरी के राजा वैजयन्त और उनके दोनों पुत्र संजयन्त और जयन्त के ये दीक्षागुरु थे । हपु० २७.५-७ (८) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३५, २५.६६, १०० स्वयंभूरमण - ( १ ) मध्यलोक का अन्तिम सागर। इसमें जलचर जीव होते हैं । इसका जल सामान्य जल जैसा होता है । मेरु पर्वत की अर्ध चौड़ाई से इस सागर के अन्त तक अर्ध राजू की दूरी है। इस अर्ध राजू के अर्ध भाग में आधा जम्बूद्वीप और सागर तथा इस समुद्र के पचहत्तर हजार योजन अवशिष्ट भाग है । मपु० ७.९७, १६. २१५, पु० ५.६२६, ६२९, ६३२, ६३५-६३६ (२) मध्यलोक का अन्तिम द्वोप । मपु० ७.९७, १६.२१५, हपु० ५.६२६, ६३३, ६०.११६ स्वयम्भूषणु - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. ११० स्वयंवर (१) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र को अयोध्या नगरी का राजा । इसकी रानी सिद्धार्था थी । ये तोर्थङ्कर अभिनन्दननाथ के पिता थे । मपु० ५०.१६-२२ (२) विवाह को एक विधि। इसमें कन्या अपने पति का स्वयं वरण करती है। इसका शुभारम्भ वाराणसी के राजा अकम्पन ने किया था । मपु० ४३.१९६-१९८, २०२-२०३, ३२५-३२९, ३३४ स्वयंवर विधान - वर के अच्छे और बुरे लक्षण बतानेवाला एक ग्रन्थ इसे राजा सगर ने अपने मंत्रो से तैयार कराया था। इसका उद्देश्य सुलसा का मधुपिंगल से स्नेह हटाकर राजा सगर में उत्पन्न करना था । मपु० ६७.२२८-२३७, २४१-२४२ Jain Education International जैन पुराणकोश: ४७५ स्वयंसंवेद्य - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. १४६ स्वर - ( १ ) संगीत कला से सम्बन्धित सात स्वर - ( १ ) मध्यम (२) ऋषभ (३) गान्धार (४) षड्ज (५) पंचम (६) धैवत और (७) निषाद । ये आरोही और अवरोही दोनों होते हैं । मपु० ७५.६२३, पपु० १७.२७७, २४.८ (२) अष्टांग निमित्तज्ञान का एक भेद । यह दो प्रकार का होता है-दुश्वर और सुस्वर इनमें मृदंग आदि अचेतन और हावी आदि चेतन पदार्थों के सुस्वर से इष्ट और दुस्वर से अनिष्ट पदार्थ के प्राप्त होने का संकेत प्राप्त होता है । मपु० ६२.१८१, १८६, हपु० १०.११७ स्वराज्यप्राप्तकिया— गृहस्य की तिरेपन क्रियाओं में तेतालीसवों क्रिया । इसमें जिसकी यह क्रिया होती है उसे राजाओं के द्वारा राजाधिराज के पद पर अभिषिक्त किया जाता है। वह भी दूसरे के शासन से रहित समुद्र पर्यन्त इस पृथिवी का शासन करता है। इस प्रकार सम्राट पद पर अभिषिक्त होना स्वराज्यप्राप्तिक्रिया कहलाती है । मपु० ३८.६१, २३२ स्वर्ग — इसका अपर नाम कल्प है। ये ऊर्ध्वलोक में स्थित हैं और सोलह हैं। उनके नाम है- (१) सौधर्म (२) ऐशान (२) मनकुमार (४) माहेन्द्र (५) ब्रह्म (६) ब्रह्मोत्तर (७) लान्तव (८) कापिष्ठ (९) शुक्र (१०) महाशुक्र (११) शतार ( १२ ) सहस्रार (१३) आनत (१४) प्राणत (१५) आरण और (१६) अच्युत । इनके ऊपर अधोग्रैवेयक, मध्य वेयक और उपरिम ग्रैवेयक ये तीन प्रकार के ग्रैवेयक हैं। इनके आगे नौ अनुदिश और इनके भी आगे पाँच अनुत्तर विमान है। स्वर्गों के कुल चौरासी लाख सत्तानबे हजार तेईस विमान हैं। इनमें सठ पटल और त्रेसठ हो इन्द्रक विमान हैं । सोधर्म सनत्कुमार, ब्रह्म, शुक, आनत और आरण कल्पों में रहनेवाले इन्द्र दक्षिण दिशा में और ऐशान, माहेन्द्र, लान्तव, शतार, प्राणत और अच्युत इन छः कल्पों के इन्द्र उत्तर दिशा में रहते हैं । आरण स्वर्ग पर्यन्त दक्षिण दिशा के देवों की देवियाँ सौधर्म स्वर्ग में ही अपने-अपने उपपाद स्थानों में उत्पन्न होतो हैं और नियोगी देवों के द्वारा यथास्थान ले जायी जाती है। अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्तरदिशा के देवों की देवियाँ ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होती हैं और अपने-अपने देवों के स्थान पर ले जायी जाती हैं । सौधर्म और ऐशान स्वर्गों में केवल देवियों के उत्पत्ति स्थान छः लाख और चार लाख हैं । समस्त श्रेणाबद्ध विमानों का आधा भाग स्वयंभूरमण समुद्र के ऊपर और आधा अन्य समस्त द्वीप समुद्रों के ऊपर फैला है। पु० ६.२५-४३, ११, १०१-१०२, ११९- १२१ विशेष जानकारी हेतु देखें प्रत्येक स्वर्ग का नाम । स्वर्णकूला --- हैरण्यवत् क्षेत्र की एक नदो। यह चौदह महानदियों में ग्यारहवीं महानदी है। यह पुण्डरीक सरोवर से निकली है। म ६३.१९६, हपु० ५.१३५ स्वर्णचूल - राम के पूर्वभव का जीव । यह सनत्कुमार स्वर्ग के कनकप्रभ विमान में देव था । मपु० ६७.१४६-१५० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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