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________________ ४७४ : जैन पुराणकोश स्वयंप्रभा-स्वयंभू (५) पुण्डरीकिणी नगरी के एक मुनि । इन्होंने पुष्कराध के विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी में स्थित गण्यपुर नगर के मनोगति और चपलगति विद्याधरों को उनके बड़े भाई चिन्तागति का माहेन्द्र स्वर्ग से च्युत होकर सिंहपुर नगर का अपराजित नामक राजा होना बताया था। मपु० ७०.२६-४३, हपु० ३४.१५-१७, ३४-३७ (६) सौधर्म स्वर्ग का एक विमान । मपु० ९.१०६-१०७ (७) ऐशान स्वर्ग का एक विमान और उसका निवासी एक देव । मपु० ९.१८६ (८) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३५, २५.१००, ११८ (९) एक मुनि । ये जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में स्थित गन्धिला देश में सिंहपुर नगर के राजकुमार जयवर्मा के दीक्षागुरु थे। मपु० ५.२०३-२०५, २०८ (१०) एक मुनि । ये जम्बद्वीप के विदेहक्षेत्र में कच्छ देश के क्षेमपुर नगर के राजा विमलवाहन के दीक्षागुरु थे । मपु० ४८.२, ७ (११) एक मुनि । ये धातकीखण्ड द्वीप के भरतक्षक्षेत्र की अयोध्या नगरी के राजा अजितंजय के दीक्षागुरु थे। मपु० ५४.८६-८७, ९४-९५ (१२) एक द्वीप तथा वहाँ का निवासी एक देव । इस देव की देवी का नाम स्वयंप्रभा था। मपु० ७१.४५१-४५२ (१३) रावण द्वारा बसाया गया एक नगर । पपु० ७.३३७ (१४) चौथे तीर्थंकर अभिनन्दननाथ के पूर्वभव के पिता। मप० २०.२५ (१५) एक हार । रामपुरी के निर्माता यक्ष ने यह हार राम को दिया था। पपु० ३६.६ (१६) सीता का जीव-अच्युत कल्प का देव । इसने राम मोक्ष न जाकर स्वर्ग में ही उत्पन्न हों, इस ध्येय से जानकी का वेष धारण करके राम की साधना में अनेक विघ्न उपस्थित किये थे पर राम स्थिर रहे और केवली हुए। इसने उनके केवलज्ञान की पूजा करके उनसे अपने दोषों की क्षमा याचना को थी । पपु० १२२.१३-७३ (१७) सुमेरु पर्वत का अपर नाम । दे० सुमेरु स्वयंप्रभा-(१) स्वयंभरमण द्वीप के स्वयंप्रभ व्यन्तर देव को देवी। यह कृष्ण की पटरानी पद्मावती के तीसरे पूर्वभव का जीव थी। मप० ७१.४५१-४५२, हपु० ६०.११६ (२) मन्दोदरी की छोटी बहिन । रावण ने इसे सहस्ररश्मि को देना चाहा था किन्तु उसने इसे स्वीकार न करके दीक्षा ले ली थी। 'पपु० १०.१६१ (३) कृष्ण की रानी जाम्बवती के पूर्व का जीव । यह कुबेर की स्त्री थी। हपु० ६०.५० (४) विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के रथनूपुरचक्रवालनगर के राजा सुकेतु की रानी। इसकी पुत्री सत्यभामा का विवाह कृष्ण से हुआ था। मपु० ७१.३१३, हपु० ३६.५६, ६१, ६०.२२, पापु० (५) समवसरण के आम्रवन की एक वापी । हपु० ५७.३५ (६) समुद्रविजय के छोटे भाई स्तिमितसागर को रानी। हपु० १९.३ (७) विजयाध पर्वत की उत्तरश्रेणी के राजा विद्याधर ज्वलनजटी और रानी वायुवेगा की पुत्री। यह अर्ककीर्ति की बहिन थी। पिता ने इसका विवाह पोदनपुर के राजकुमार प्रथम नारायण त्रिपृष्ठ से किया था । मपु० ६२.४४, ७४.१३१-१५५, पापु० ४.११-१३, ५३५४ वीवच० ३.७१-७५, ९४-९५ (८) विजयाध पर्वत की उत्तरश्रेणी में भोगपुर नगर के राजा वायुरथ विद्याधर को रानो। प्रभावती की यह जननी थी। मपु० ४६.१४७-१४८ (९) वृषभदेव के नौवें पूर्वभव का जीव-ऐशान स्वर्ग के ललितांग देव की महादेवी । यह पति की पृथक्त्व पल्य के बराबर आयु शेष रह जाने पर उत्पन्न हुई थी। पति का वियोग होने पर इसे दुःखो देखकर अन्तःपरिषद् के सदस्य दृढ़धर्म देव ने इसका शोक दूर कर इसे सन्मार्ग पर लगाया था । यह छ: माह तक जिनपूजा में उद्यत रही । पश्चात् सौमनस वन के पूर्वदिशा के जिन मन्दिर में चैत्यवृक्ष के नीचे समाधिमरणपूर्वक देह त्याग कर पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रदन्त की श्रीमती नाम की पुत्री हुई। मपु० ५.२५३-२५४, २८३-२८६, ६. ५०-६० दे० श्रीमती-१३ स्वयंबुद्ध-(१) विजयाध पर्वत पर स्थित अलकापुरी के राजा महाबल का चौथा मंत्री। इसने भूतवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद मिथ्यावादों का खण्डन कर आस्तिक्यवाद का समर्थन किया था। सुमेरु की वन्दना करते समय किसी मुनि से राजा महाबल की दसवें भव में मुक्ति जानकर यह हर्षित हुआ तथा इसने राजा का समाधिपूर्वक मरण कराया था । अन्त में राजा के वियोग से इसने भी दीक्षा ले लो तथा यह समाधिमरणपूर्वक देह त्याग कर सौधर्म स्वर्ग के स्वयंप्रभ विमान में मणिचूल नामक देव हुआ। मपु० ४.१९०-१९१, ५.५०८६, १६१, २००-२०१, २२३-२३४, २४८-२५०, ९.१०६-१०७ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. ११३ स्वयंभू-(१) तीर्थंकर कुन्थुनाथ के प्रथम गणधर । मपु० ६४.४४, हपु० ६०.३४८ (२) तीर्थकर पार्श्वनाथ के प्रथम गणधर । मपु० ७३.१४९, हपु०६०.३४९ (३) आगामी उन्नीसवें तीर्थंकर । मपु० ७६.४८०, हपु० ६०. (४) तीसरे वासुदेव (नारायण)। ये अवसर्पिणी काल के दुःषमासुषमा चौथे काल में उत्पन्न हुए थे। विमलनाथ तीर्थकर के समय में भरतक्षेत्र की द्वारावती नगरी के राजा भद्र इनके पिता और पृथिवी रानी इनकी माता थी। इनका धर्म नाम का भाई बलभद्र था। रत्नपुर नगर का राजा मधु प्रतिनारायण इनका बैरी था। मधु Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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