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________________ ४४६ : जैन पुराणकोश सुकृती-सखोक्यक्रिया - भाई तथा अकम्पन, पतंगक, प्रभंजन और प्रभास चार छोटे भाई थे। इसकी प्रियकारिणी आदि सात बहिनें थीं। मपु० ७५.३-७ सुकृती-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७४ सुकेतु-(१) जम्बद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश की मृणाल वती नगरी का राजा । इसने अर्ककीति और जयकुमार के बीच हुए युद्ध में जयकुमार का पक्ष लिया था। यह मुकुटबद्ध राजा था । मपु० ४४.१०६-१०७, पापु० ३.९४-९५, १८७-१८८ (२) मृणालवती नगरी का एक सेठ । यह रतिवर्मा का पुत्र था। इसकी स्त्री कनकधी और पुत्र भवदेव या। मपु० ४६.१०३-१०४ (३) विजयार्घ पर्वत पर स्थित रथन पुर नगर का राजा । कृष्ण की पटरानी सत्यभामा इसकी पुत्री थी। मपु० ७१.३०१, ३१३, हपु० ३६.५६, ६१ (४) धर्म नारायण के दूसरे पूर्वभव का जीव । यह श्रावस्ती नगरी का राजा था। जुए में अपना सब कुछ हार जाने से शोक से व्याकुलित होकर इसने दीक्षा ले ली थी तथा कठिन तपश्चरण करने से कला, गुण, चतुरता और बल प्रकट होने का निदान करके यह संन्यास-मरण करके लान्तव स्वर्ग में देव हुआ। मपु० ५९.७२, ८१-८५, दे० धर्म-३ (५) एक विद्याधर । पद्म चक्रवर्ती ने अपनी आठों पुत्रियों का विवाह इसी के पुत्रों के साथ किया था। मपु० ६६.७६-८० (६) गन्धवती नगरी के सोम पुरोहित का ज्येष्ठ पुत्र । यह प्रेमवश अपने भाई अग्निकेतु के साथ ही शयन किया करता था। विवाहित होने पर पृथक्-पृथक् शय्या किये जाने पर प्रतिबोध को प्राप्त होकर इसने अनन्तवीर्य मुनि से दीक्षा ले ली। इसका भाई प्रथम तो तापस हो गया था, किन्तु बाद में इसके द्वारा समझाये जाने पर उसने भी दिगम्बरी दीक्षा ले ली थी। पपु० ४१.११५-१३६ सुकेतुधी-वाराणसी नगरी के राजा अकम्पन और रानी सुप्रभा देवी ___ का पुत्र । हेमांगद और सुकान्त आदि इसके भाई थे। मपु० ४३. १२४, १२७, १३१-१३४ सुकेश-लंका के राजा विद्युत्केश का पुत्र । इसकी रानी का नाम इन्द्राणी था । इस रानी से इसके क्रमशः तीन पुत्र हुए-माली, सुमाली और माल्यवान् । यह अन्त में अपने तीनों पुत्रों को उनकी अपनी-अपनी सम्पदा (भाग) सौंपकर निर्ग्रन्थ साधु हो गया। पपु० ६.२२३, ३३३, ५३०-५३१, ५७० सुकोशल--(१) भरतक्षेत्र का एक देश। इसका निर्माण वृषभदेव के समय में स्वयं इन्द्र ने किया था। मपु० १६.१५३ (२) कौशल नगरी के राजा कीर्तिधर और रानी सहदेवी का पुत्र । इनके पिता ने इनके जन्मते हो दीक्षा ले लेने का निश्चय किया था। फलस्वरूप इन्हें एक पक्ष की उम्र में ही राज्य प्राप्त हो गया था। इन्हें वैराग्य न हो सके एतदर्थ इनकी माता ने मुनि अवस्था में आहार के लिए आये राजा कोतिधर को भी नगर से निकलवा दिया था। पिता का यह अपमान और माँ की कटन'ति को वसन्तलता धाय से ज्ञातकर इन्होंने चुपचाप राजमहल को लोड़ा और ये वन में मुनि कीर्तिधर के निकट गये । कुटुम्बियों और सामंतों के द्वारा संयम धारण करने के लिए मना किए जाने पर भी इन्होंने "पत्नी विचित्रमाला के गर्भ में यदि पुत्र है तो उसको मैंने राज्य दिया" यह कहकर पिता से महाव्रत धारण कर लिया । इनकी माता सहदेवी जो मरकर व्याघ्री हुई, इन्हें देखते ही कुपित होकर उसने इनके शरीर को विदीर्ण कर दिया और चरणों का मांस भी खा लिया। यह सब होने पर भी ये अचल रहे । परिणामस्वरूप इन्हें केवलज्ञान हुआ और ये मुक्त हुए । इनकी पत्नी विचित्रमाला के पुत्र हिरण्यगर्भ को राज्य मिला। पपु० २१.१५७-१६४, २२.१-२३, ___३१-३३, ४१-४७, ८४.१०२ सुकोशला-अयोध्या नगरी। सुन्दर कौशल देश में होने से यह नगरी सुकोशल नाम से प्रसिद्ध हुई । मपु० १२.७८ सुख-(१) मन की निराकुल वृत्ति । यह कमा क क्षय अथवा उपशम स उत्पन्न होती है । मपु० ११.१६४, १८६, ४२.११९ (२) परमेष्ठियों का एक गुण । पारिवाज्य क्रिया सम्बन्धी सत्ताईस सूत्रपदों में सत्ताईसवाँ सूत्रपद । इसके अनुसार मुनि तपस्या द्वारा परमानन्द रूप सुख पाता है। मपु० ३९.१६३-१६६, १९६ (३) राम का पक्षधर एक योद्धा । पपु० ५८.१४ सुखद-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७८ सुखरथ-राजा जरासन्ध का पूर्वज । यह दृढ़रथ का पुत्र और दीपन का पिता था । हपु० १८.१८-१९, २२ सुखसाद्भूत-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१७ सुखसेव्य-लंका में स्थित प्रमदवन के आवर्तक सात उद्यानों में तीसरा मनोहर उद्यान । पपु० ४६.१४१, १४५-१४८ सुखा-रावण की एक रानी । पपु० ७७.१४ सुखानुबन्ध-सल्लेखना व्रत के पाँच अतिचारों में एक अतिचार-पहले भोगे हुए सुखों का स्मरण करना । हपु० ५८.१८४ सुखावती-जम्बद्वीप के वत्सकावती देश में विजयाध पर्वत पर स्थित राजपुर नगर के राजा धरणिकम्प और रानी सुप्रभा की पुत्री। यह जाति, कुल और सिद्ध की हुई तीनों विद्याओं की पारगामिनी थी। इसने समय-समय पर श्रीपाल की सहायता की थी। इसके पुत्र का नाम यशपाल था। मपु० ४७.७२-७४, ९०-९४, १२५-१२८. १४८-१५२, १८८ सखावह-पश्चिम विदेहक्षेत्र का चौथा वक्षार पर्वत । यह सीतोदा नदी तथा निषध पर्वत का स्पर्श करता है। हपु० ५.२३०-२३१ सुखासन-निराकुलतापूर्वक ध्यान करने के लिए व्यवहृत आसन । ऐसे दो आसन होते हैं-कायोत्सर्ग और पर्यकासन । मपु० २१. ७०-७१ सुखोदयक्रिया-गर्भान्वय की वेपन क्रियाओं में इन्द्र-पद की प्राप्ति करानेवाली छत्तीसवी क्रिया । इस क्रिया से पुण्यात्मा श्रावक इन्द्र के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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