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________________ २८ जैन पुराणको जैनधर्म का उपदेश देता था । अन्त में शरीर से निर्मोही होकर इसने चौसठ हजार वर्ष तक कठोर तप किया और मरण कर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव हुआ । वहाँ से च्युत होकर यह अयोध्या में भरत हुआ । पपु० ८५.१०२-११७, १६६ अभिरुद्गता - षड्ज स्वर की सात मूर्च्छनाओं में सातवीं मूच्र्छना | हपु० १९.१६१-१६२ अभिषवाहार- उपभोग- परिभोग परिमाणव्रत के पाँच अतिचारों में चौथा अतिचार | ( गरिष्ठ पदार्थों का सेवन करना) । हपु० ५८. १८२ अभिषेक-तीर्थंकरों का स्नपन । जो सुगन्धित जल से जिनेन्द्रों का अभिषेक करता है वह जहाँ जन्मता है वहाँ अभिषेक को प्राप्त होता है। दूध से अभिषेक करनेवाला क्षीरधवल विमान में कान्तिधारी होता है, दधि से अभिषेक कर्ता दधि के समान वर्णवाले स्वर्ग में उत्पन्न होता है। और घी से अभिषेक करनेवाला कान्ति से युक्त विमान का स्वामी होता है । अपरनाम अभिषव पपु० ३२.१६५ -१६८ हपु०, २.५० अभिसार — तीर्थंकर आदिनाथ के काल में इन्द्र द्वारा निर्मित भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड का एक देश । मपु० १६.१५२-१५५ अभीक्ष्णज्ञानोपयोग — तीर्थंकर नाम कर्म में कारणभूत सोलह भावनाओं में चौथी भावना - निरन्तर श्रुत (शास्त्र) की भावना रखना। इस भावना से अज्ञान की निवृत्ति के लिए ज्ञान की प्रवृत्ति में निरन्तर उपयोग रहता है मपु० ६३.२११, ३२२, ० २४.१३५ अभीष्ट - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६८ अ- (१) महायुद्ध में शत्रुओं के तीक्ष्ण बाणों से न भेदा जानेवाला तनुत्राण (कवच ) । अभेद्यत्व की प्राप्ति के लिए "अभेद्याय नमः" यह पीठिका मंत्र है । मपु० ३७.१५९, ४०.१५ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७१ अभेद्यत्व- ब - मुक्त जीव का गुण । यह कर्ममल के नष्ट होने से जीव के प्रदेशों का घनाकार परिणमन होने पर प्रकट होता है । मपु० ४२.१०२ दे० मुक्त अभोगिनी — अर्ककीर्ति के पुत्र अमिततेज को प्राप्त एक विद्या । मपु० ६२.४०० अभ्यग्न - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५० अभ्यव्यं - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१९० · अभ्यनुज्ञातग्रहण — अस्तेय महाव्रत को पांच भावनाओं में तीसरी भावनाश्रावक के प्रार्थना करने पर आहार ग्रहण करना । मपु० २०.१६३ दे० अस्तेय अभ्याख्यान—सत्यप्रवाद नाम के पूर्व में कथित बारह प्रकार की भाषाओं में प्रथम भाषा । हिंसा आदि पापों के करनेवालों को "नहीं करना चाहिए" इस प्रकार का वचन । हपु० १०.९१-९२ अभ्युदय पुण्योदय से प्राप्त सुन्दर शरीर नीरोगता, ऐश्वर्य, पनसम्पत्ति, सौन्दर्य, बल, आयु, यश, बुद्धि, सर्वप्रियवचन और चातुर्य आदि लौकिक सुखों का कारणभूत पुरुषार्थ । मपु० १५.२१९-२२१ : ज्ञमध्योऽपि मध्यमः - भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.५२ Jain Education International अभिगता अमरगुर अमम चौरासी लाख अमांग प्रमाण काल । मपु० ३.२२५, हपु० ७.२८ अममाङ्ग — चौरासी लाख अटट प्रमाण काल । मपु० ३.२२५, हपु० ७.२८ अमर - (१) राजा सूर्य का पुत्र । इसने वज्रनाम के नगर की स्थापना की थी । देवदत्त इसका पुत्र था। हपु० १७.३३ (२) मरण रहित अवस्था को प्राप्त जीव। इस अवस्था की प्राप्ति के लिए 'अमराय नम:' इस पीठिका मन्त्र का जप किया जाता है । मपु० ४०.१६ अमरकङ्का - धातकीखण्ड द्वीप की दक्षिण दिशा में स्थित भरतक्षेत्र के अंग देश की नगरी । पद्मनाभ यहाँ का राजा था । पु० ५४.८, पापु० २१.२४-२९ अमरगुरु - विजयार्द्ध के एक मुनि । इनके साथ देवगुरु नामक मुनि विहार करते थे। विद्याधर अकीति के पुत्र अमित ने इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे तथा उनसे धर्म-श्रवण किया था । मपु० ६२.३८७, ४०२-४०४ अमरप्रभ - राजा रविप्रभ का पुत्र, किष्कुपुर का राजा । इसने त्रिकूटेन्द्र की पुत्री गुणवती को विवाह था विवाह मण्डप में चित्रित वानरा कृतियों को देख गुणवती के भयभीत होने से उन आकृतियों पर प्रथम तो इसने क्रोध किया पश्चात् मन्त्रो द्वारा समझाये जाने पर उन आकृतियों को आदर देने की दृष्टि से मुकुट के अग्रभाग में, ध्वजाओं में, महलों और तोरणों के अग्रभाग में अंकित कराया था। इसने विजया की दोनों श्रेणियों पर विजय प्राप्त की थी। अन्त में इसने अपने पुत्र कपितकेतु को राज्य सौंपकर वैराग्य धारण कर लिया था । पपु० २.१६०-२०० अमररक्ष — लंकाधिपति महारक्ष और उसकी रानी विमलाभा का ज्येष्ठ पुत्र, उदधिरक्ष और भानुरक्ष का बड़ा भाई । देवरक्ष इसका अपरनाम था । इसने किन्नरगीत नगर निवासी राजा श्रीधर और उसकी रानी विद्या की पुत्री रति को विवाहा था। रति से इसके दस पुत्र और छः पुत्रियाँ हुई थीं। अपने पिता महारक्ष से लंका का राज्य प्राप्त करने के पश्चात् इसने और इसके भाई भानुरक्ष दोनों ने अपने पुत्रों को राज्य दे दिया और ये दीक्षा लेकर महातप करने लगे । अन्त में देह त्याग कर दोनों सिद्ध हुए । पपु० ५.२४१-२४४, ३६१-३७६ अमरविक्रम - विद्याधरों का राजा । पपु० ५.३५४ अमरसागर -- महेन्द्र नगर के राजा विद्याधर महेन्द्र का मन्त्री । पपु० १५.१२-१४, ३१ अमरा - दशानन को प्राप्त एक विद्या । पपु० ७.३२८-३३२ अमरावती — इन्द्र की नगरी । मपु० ६ २०५ अमरावतं भार्गवाचार्य की विष्य-परम्परा में यह कौमित्र का शिष्य था और इसका शिष्य सित था । हपु० ४५.४४-४५ अमरगुरु — अमिततेज के समय के मुनि देवगुरु के सहगामी मुनि । मपु० ६२.४०३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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