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________________ सम्यक्त्वक्रिया-सर्वकामान्नवा' जैन पुराणकोश : ४२९ और चारित्र सम्यक् होते हैं। यह मोक्ष का प्रथम सोपान है । जो सरवर-एक आचार्य । ये भार्गवाचार्य की वंश परम्परा में हुए आचार्य पांचों अतिचारों से दूर हैं वे गृहस्थों में प्रधान पद पाते हैं । वे जगत्स्थामा के पुत्र और आचार्य शरासन के पिता थे। हपु० ४५.४६ उत्कृष्टत: सात-आठ भवों में और जघन्य रूप से दो-तीन भवों में ____ सरस-मेघ । ये अवसर्पिणी काल के अन्तिम उनचास दिनों में आरम्भ मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार सच्चे देव, शास्त्र और समीचीन के सात दिन अनवरत बरसते हैं । मपु० ७६.४५२-४५३ पदार्थों का प्रसन्नतापूर्वक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है । ___सरसा-दारुग्राम के विमुचि ब्राह्मण की पुत्रवधु । यह अतिभूति की मपु० ९.११६, १२२-१२४, १३१, २१.९७, २४.११७, ४७. स्त्री थी । पपु० ३०.११६ । ३०४-३०५, ७४.३३९-३४०, पपु० १४.२१७-२१८, १८.४९-५०, सरस्वती-(१) जयन्तगिरि के राजा वायु विद्याधर को रानी । रति ४७.१०, ५८.२०, पापु० २३.६१, वीवच० १८.११-१२, १९, इसकी पुत्री थी जो प्रद्य म्न को दी गयी थी। हपु० ४७.४३ १४१-१४२ (२) एक देवी । यह तीर्थकर नेमिनाथ के विहार के समय पद्मा सम्यक्त्वक्रिया-साम्परायिक आस्रव की पच्चोस क्रियाओं में प्रथम देवी के साथ आगे-आगे चलती थी । हपु० ५९.२७ क्रिया। शास्त्र, अर्हन्तदेव-प्रतिमा तथा सच्चे गुरु की पूजा-भक्ति (३) तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि । हपु० ५८.९ आदि करना सम्यक्त्वक्रिया है। इससे सम्यक्त्व की उपलब्धि और (४) मृणालकुण्डलनगर के राजा शम्भु के पुरोहित श्रीभूति की पुण्यबन्ध होता है । हपु० ५८.६१ स्त्री। वेदवती की यह जननी थी। पपु० १०६.१३३-१३५, १४१ सम्यक्त्वभावना-संवेग, प्रशम, स्थैर्य, असंमूढ़ता, अस्मय, आस्तिक्य सरागसंयम-सातावेदनीयकर्म का एक आस्रव । पपु० १४.४७, हपु० और अनुकम्पा ये सात सम्यक्त्व को भावनाएं हैं। मपु० २१.९७ ५८.९४-९५ दे० सम्यक्त्व सरिता-पूर्व विदेहक्षेत्र के बत्तीस देशों में चौबीसवाँ प्रदेश । वीतशोका सम्यग्ज्ञान-सम्यग्दर्शन से अज्ञान अन्धकार के नष्ट हो जाने पर नगरी इस देश की राजधानी थी। यह प्रदेश पूर्व विदेह क्षेत्र में उत्पन्न संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित जीव आदि पदार्थों सीतोदा नदी और निषध पर्वत के मध्य में स्थित है तथा दक्षिणोत्तर का विवेचनात्मक ज्ञान । मपु० २४.११८-१२०, ४७.३०५-३०७, लम्बा है । मपु० ६३.२११, २१६ हपु० ५.२४९-२५०, २६२ ७४.५४१, वीवच० १८.१४-१५ सरित्-तीसरे पुष्करवर द्वीप में पश्चिम मेरु पर्वत से पश्चिम की ओर सम्यग्दर्शनभाषा-सत्यप्रवादपूर्व की बारह भाषाओं में ग्यारहवों भाषा । वर्तमान एक देश । विदेहक्षेत्र के सरिता देश के समान इस देश का इससे समीचीन मार्ग का ज्ञान होता है । हपु० १०.९६ मुख्य नगर वीतशोक था। चक्रध्वज यहाँ के राजा थे। मपु. सम्यग्दृष्टि-स्वतः अथवा परोपदेश के द्वारा भक्तिपूर्वक तत्त्वार्थ में श्रद्धा रखनेवाला जीव । सम्यग्दृष्टि ही कर्मों की निर्जरा करके सर्पबाहु-रावण का एक योद्धा । यह राम रावण युद्ध में अश्ववाहोसंसार से मुक्त होता है । पपु० २६.१०३, १०५.२१२, २४४ रथ पर बैठकर बाहर निकला था । पपु० ४७.५३ सयोगकेवली-चौदह गुणस्थानों में तेरहवा गुणस्थान । इस गुणस्थान सर्पसरोवर-धान्यकमाल नामक वन का एक सरोवर । राजा प्रजापाल को प्राप्त जीव सशरीर परमात्मा होता है । हपु० ३.८३ का सेनापति शक्तिषेण अपनी पत्नी सहित यहाँ ठहरा था तथा मुनि सयोगी-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३८ को आहार देकर उसने पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। मपु० ४६.१०२, सर-(१) लंका-द्वीप का एक सुन्दर नगर । श्रीकण्ठ को रहने के लिए १२३-११४, १३५-१३६ बताये गये निरुपद्रव नगरों में यह एक नगर था । पपु० ६.६७ सावर्त-रत्नप्रभा पथिवी का एक बिल । मपु० ७२.३१ (२) तीर्थकरो के गर्भ में आने पर उनकी माता द्वारा रात्रि के सपिरास्त्रविणी-एक रस-ऋद्धि । इसके प्रभाव से भोजनालय में घो को अन्तिम पहर में देखे गये सोलह स्वप्नों में दसवाँ स्वप्न-कमल युक्त __ न्यूनता नहीं होती। मपु० २.७२ सरोवर । पपु० २११.२-१४ सर्वजय-विद्याधर विनमि का पुत्र । हपु० २२.१०५ सरभ-राम का एक योद्धा। रावण की सेना आती हुई देखकर यह सर्वकल्याणमाला-कूबर नगर के राजा बालिखिल्य की पुत्री। पपु० व्याघ्ररथ पर आसीन होकर ससैन्य बाहर निकला था। पपु० ८०.११०, दे० कल्याणमाला ५८.५ सर्वकल्याणो-भरतक्षेत्र के विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी में स्थित सरयू-भरतक्षेत्र को एक नदो। अयोध्या इमो नदी के तट पर स्थित ज्योति-प्रभ नगर के राजा संभिन्न की रानी। दोपशिख इसका पुत्र है। नगरवासियों ने राज्याभिषेक के समय तीर्थकर वृषभदेव के था । मपु० ६२.२४१-२४२, पापु० ४.१५२-१५३ चरणों का इस नदी के जल से अभिषेक किया था। जयकुमार के सर्वकामान्नवा-आठ अक्षरोंवाली एक विद्या । रावण आदि तीनों हाथी को कालीदेवी ने इसी नदी में पकड़ा था। मपु० १४.६९, १६. भाईयों ने एक लाख जप कर इसे आधे ही दिनों में सिद्ध कर लिया २२५, पापु० ३.१६३-१६४ था। इससे उन्हें जहां-तहां मनचाहा अन्न प्राप्त हो जाता था। पपु. सरल-तीर्थकर अभिनन्दननाथ का चैत्यवृक्ष । पपु० २०.४७ ७.२६४-२६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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