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________________ समुद्रविजय-सम्यक्त्व ४२८ : जैन पुराणकोश धनवती का भाई था । कुबेरमित्र ने अपनी बहिन कुबेरमित्रा इसे विवाही थी। इसके प्रियदत्ता आदि बत्तीस कन्याएं थीं। मपु० ४६.१९-२०, ४१-४२ (४) पुण्डरीकिणी नगरी के सेठ सागरसेन का दूसरा पुत्र । यह सागरदत्त का छोटा भाई था । इसकी बहिन सागरदत्ता थी जो सेठ वैश्रवणदत्त को विवाही गयी थी और इसका विवाह सर्वदयिता के साथ हुआ था। मपु० ४७.१९५-१९८ समुद्रविजय-(१) बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के पिता । ये शौरीपुर के राजा अन्धकवृष्णि और सुभद्रा के दस पुत्रों में प्रथम पुत्र थे । शिवदेवी इनकी रानी थी। इनके नौ छोटे भाई थे, जिनमें वसुदेव सबसे छोटे थे । भाइयों के नाम ये-स्तिमितसागर, हिमवान्, विजय, अचल, धारण, पूरण, पूरितार्थीच्छ, अभिनन्दन और वसुदेव । इनके अनेक पुत्र थे जिनमें कुछ मुख्य पुत्रों के नाम निम्न प्रकार है-महानेमि, सत्यनेमि, दृढ़नेमि, अरिष्टनेमि, सुनेमि, जयसेन, महीजय, सुफल्गु, तेजःसेन, मय, मेघ, शिवनन्द, चित्रक और गौतम आदि । ये अन्त में गजकुमार मुनि का मरण जानकर दीक्षित हो गये थे। विहार करते हुए ये गिरिनार आये और वसुदेव को छोड़ शेष सभी भाईयों सहित इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । मपु० ७०.९५-९८, ७१.३८, ४६, पपु० २०.५८, हपु० १.७९, १८.१३, ३१.२५, ६१.९, ६५.१६, (२) अयोध्या का इक्ष्वाकुवंशी राजा । इसकी रानी सुबाला थी। चक्रवर्ती सगर के ये पिता थे । मपु० ४८.७१-७२ समुद्रसंगम-कुन्दनगर का निवासी एक वैश्य । इसकी स्त्री यमुना और विद्यु दंग पुत्र था । पपु० ३३.१४३-१४४ समुद्रसेन–(१) वस्त्वोकसार नगर का एक विद्याधर राजा, जिसकी रानी जयसेना और पुत्री वसन्तसेना थी । मपु० ६३.११८-११९ । (२) एक मुनि । गौतम ब्राह्मण आहार के लिए जाते हुए इन्हीं मुनि के पीछे लग गया था। सेठ वैश्रवण के यहाँ दोनों के आहार हए । गौतम ने आहार करने के पश्चात् इस मुनि से दीक्षा देने की प्रार्थना की थी । फलस्वरूप इन्हीं मुनिराज ने उसे संयम ग्रहण करा दिया था । आयु के अन्त में ये मुनि मध्यम अवेयक के सुविशाल नाम के उपरितन विमान में अहमिन्द्र हुए और यह गौतम भी इसी विमान में अहमिन्द्र हुा । मपु० ७०.१६०-१७९ दे० गौतम-२ समुद्रहृदय-राजा दशरथ को मृत्यु का कारण जाननेवला एक मंत्री। राजा दशरथ इसे ही देश, खजाना, नगर और प्रजा को सौंपकर नगर से निकले थे तथा इसने राजा का पुतला बनाकर सिंहासन पर विराजमान करके राजा को मरण से बचाया था। पपु० २३.२४ २७, ३६-४४ दे० दशरथ समुन्नतबल-राम का एक योद्धा विद्याधर कुमार। यह बहुरूपिणी विद्या के साधक रावण को कुपित करने के लिए लंका गया था । पपु० ७०.१७ समुन्मूलितकर्मारि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१४ सम्मद-अनागत दूसरा रुद्र । हपु० ६०.५७१-५७२ सम्मूच्छन-जीवों के जन्म का एक प्रकार । गर्भ और उपपाद जन्मवाले जीवों को छोड़कर शेष जीवों का सम्मूर्छन जन्म होता है । पपु० १०५.१५०-१५१ सम्मे-वृषभ, वासुपूज्य, नेमि और महावीर को छोड़कर शेष बोस तीर्थंकरों की निर्वाणभूमि । मपु० ४८.५१-५३, ४९.५५-५६, ५०. ६५, ५१.८४, ५२.६६, ५३.५२, ५४.२६९-२७२,५५.५८, ५६. ५७-५८, ५७.६०-६२, ५९. ५४-५७, ६०.२२-४५, ६१.५१-५२, ६३.४९६-४९९, ६४.५१-५२, ६५.४५-४६, ६६.६१-६३, ६७. ५५-५७ ६९.६७-६९, ७३.१५७-१५८, पपु० २०.६१ सम्यकचारित्र-सम्यग्दर्शन सहित शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति । इससे समताभाव प्रकट होता है । इसमें पंच महाव्रत, पंच समिति और तीन गुप्तियों का पालन होने से यह तेरह प्रकार का होता है। ऐसा चारित्र समस्त कर्मों का काटनेवाला होता है । इसमें मुनियों के लिए परपीडा से रहित तथा श्रद्धा आदि गुणों से सहित दान दिया जाता है तथा विनय, नियम, शील, ज्ञान, दया, दम और मोक्ष के लिए ध्यान किया जाता है । यह सम्यक्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अभाव में कार्यकारी नहीं होता। सम्यकदर्शन और सम्यग्ज्ञान इसके बिना भी हो जाते है किन्तु इसके लिए उन दोनों की अपेक्षा होती है । ऐसा चारित्र निर्ग्रन्थ महाव्रती मुनि धारण करते है। मपु० २४.११९१२२, ७४.५४३, पपु० १०५.१२१-२२२, हपु० १०.१५७, पापु० २३.६३ सम्यक्त्व-प्रमाण के द्वारा जाने हुए तत्त्वों का श्रद्धान । इसी से मिथ्यात्व का शमन होता है। यह औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का होता है। रुचि के भेद से इससे दस भेद भी होते हैं-आज्ञा, मार्ग, उपदेशोत्थ, सूत्रसमुद्भव, बीजसमुद्भव, संक्षेपज, विस्तारज, अर्थज, अवगाढ़ और परमावगाढ़ । यह निसर्गज और अधिगमज इन दो प्रकारों का भी होता है। यह दर्शनमोह के क्षय, उपशम तथा क्षयोपशम से होता है। इसकी प्राप्ति के लिए देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और पाखण्डिमूढ़ता का त्याग कर निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़ दृष्टि, उपगृहन, वात्सल्य, स्थितिकरण और प्रभावना ये आठ अंग धारण किये जाते हैं। प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकम्पा ये चार इसके गुण तथा श्रद्धा रुचि, स्पर्श और प्रत्यय इसके पर्याय (अपरनाम) है। तीन मूढ़ता, आठ मद, छः अनायतन और शंकादि आठ दोषों सहित इसमें पच्चीस दोषों का त्याग किया काता है। प्रशम, संवेग, स्थिरता, अमूढ़ता, गर्व न करना, आस्तिक्य और अनुकम्पा ये सात इसकी भावनाएं हैं। इन भावनाओं से इसे शुद्ध रखा जाता है। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि-प्रशंसा और दोषारोपण करना ये पाँच इसके अतिचार है। यह देशना, काललब्धि आदि बहिरंग कारण तथा कारणलब्धि रूप अन्तरंग कारणों के होने पर ही भव्य प्राणियों को प्राप्त होता है। ज्ञान और चारित्र का यह बीच है। इसी से जान Jain Education Intemational Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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